(इस कविता का भाव यही है के ...जीवन किसी के लिए अपनी दिशा नही बदलता ..जो जैसा है वैसा ही है और रहेगा..हमारे मन कि अज्ञानता इसे समझे या न समझे !)
क्यूं पश्चिम से दिन निकले ?
और क्यूं पूरब में सांझ ढले ?
ऐ मन भला क्यूं तेरी खातिर
ये जीवन उलटी चाल चले ?
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क्यूं नींदों में सूरज घर कर जाए ?
क्यूं विरह में न रात जले ,
ये अम्बर आखिर क्यूं झुक जाए
क्यूं चंदा का वनवास टले ?
ऐ मन भला क्यूं तेरी खातिर
ये जीवन उलटी चाल चले ?
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बनते पतझड़ के वो साक्षी
जिनसे कल के मधुमास थे
वही तरुण अब नही रहेंगे
जिनसे बहारों के उल्लास थे
बागवां कि पीड़ा पर क्यूं
पुष्पों कि मुस्कान खिले ?
ऐ मन भला क्यूं तेरी खातिर
ये जीवन उलटी चाल चले ?
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राम अहिल्या करते देखे
एक पत्थर के तासीर को !
रघुकुल रीत नहीं दे पायी
न्याय सिया कि पीर को !
मन कि कंचित कुंठाओं में
क्यूं समर्पण कि ये रीत पले ?
ऐ मन भला क्यूं तेरी खातिर
ये जीवन उलटी चाल चले ?
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ये सावन भला क्यूं पढ़ा करे
प्यासे मरुथल कि तहरीर को
क्यूं गंगा सा सत्कार मिले
यहाँ हर नदिया के नीर को
टूटी हुई किसी वीणा से ,
क्यूं सरगम कि तान मिले !
ऐ मन भला क्यूं तेरी खातिर
ये जीवन उलटी चाल चले !
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क्यूं पश्चिम से दिन निकले ?
और क्यूं पूरब में सांझ ढले ?
ऐ मन भला क्यूं तेरी खातिर
ये जीवन उलटी चाल चले ?
-- वंदना