Tuesday, March 27, 2012

ग़ज़ल





देखा था खाब हमने कि  सितारे बदल गये 
आँखें  जब खुली तो सब नज़ारे बदल गये ..!

लहरों  का मिजाज़ है.. मुड़कर नही देखना 
इलज़ाम ये गलत है के किनारे बदल गये..!

अब  नींदें देखती है ..सपनो के इन्द्रधनुष को 
कोई बरसात गुजरी है   रंग सारे बदल गये !

जिंदगी अपने सफ़र पे रहती है सदा कायम 
क्या हुआ कि वक्त के जो इशारे बदल गये !

देखा था तुम्हे  वंदु   कभी सखियों में खेलते 
ये तन्हाई बताती है  शोक तुम्हारे बदल गये !

- वंदना 



Thursday, March 22, 2012


         पिछले दो दिन से अपने अंतर्मन के शोर को कम करने कि कोशिश में   हूँ ........मगर हर एक शब्द उस खोटे सिक्के कि तरह लग रहा है  ..जिन्हें भिखारी कि और भी नही बढ़ाया जा सकता ..........मन का दुवंद शब्दों में बहुत छोटा लगता है ...और ये ऐसा द्वन्द है जिसे छोटा करके देखा भी नही जा सकता .....जिन्दगी कई बार इस तरह मिली तो है ....मगर आज तो जैसे सोते बच्चे को  डरावनी चीख मार कर डरा दिया हो ...


अपना लिखा हुआ कुछ बार बार ...जहन में गूँज  रहा है ....


है इबादत कोई या  दुआ है जिंदगी ,हर मौसम में बहती हवा है जिंदगी 
बहारो से गुजरे तो महकता गुलशन ,पतझड़ में दहकता धुंआ है जिंदगी 
किसी के वास्ते है अंधेरों का सफ़र ,किसी के लिए एक  शुआ है जिंदगी 
खोकर   है पाना ,पाकर है  खोना .इक खेल है   एक जुआ है  जिंदगी .


       जिन्दगी क्या है ये तो आज सोच पाने कि बिल्कुल शक्ति नही है ...मगर क्या नही है ...ये जरूर सोच पा रही हूँ ...जिन्दगी न तो बचपन कि सुनी हुई वो एक भी कहानी है ...न अम्रता प्रीतम के उपन्यास हैं न गुलज़ार कि कवितायेँ हैं ....क्योकि कल से मैं इन्ही सब में मन के द्वन्द को रमने कि कोशिश में हूँ ..मगर मुझे इन सब में जिन्दगी कहीं नही दिख रही हैं ...

बस दिख रही है तो एक काले घने सायें में रेंगती हुई जिन्दगी ....ये साया मानो जिन्दगी पर इस तरह हावी है ....जैसे ज़मीन पर आसमान ....कितना भयानक सा शब्द है न ये  मौत ....होठो पर लाने के लिए भी जिगर में  साहस सा भरना पड़ता है ...



       मौत तो हमेशा जिन्दगी के बाद ही आती है न ..फिर उसके हिस्से में जिन्दगी से पहले क्यूं चली आई ? 
ये सोच सोच कर परेशान नही हूँ बल्कि डरी हुई हूँ  ..सहमी हुई हूँ .कुछ बड़े पंजो का जानवर जैसे दोबोच रहा है अंदर ही अंदर ...ऐसा लग रहा है जैसे किसी अँधेरे से गुजर रही हूँ ...जहाँ पता नही किसी कदम पर कौन सा गम मुझे जिन्दा सटक जायेगा ....पता नही कब ..और क्या दिखा देगी  जिन्दगी !!




       सहेली है मेरी वो ...इन चोदह सालो में शायद दस बार ही देखा हो मैंने उसे ....पर बचपन बिताया है मैंने उसके साथ .........और अब गाँव वापस जाने पर मुलाकात होती थी तो लगता ही नही था ...किसी वक्त के बाद मिल रहे हैं ............जो पागलपन हर एक लड़की अपने अंदर छुपाये घूमती है ..वह थोडा बहुत दिख जाता था उसके चेहरे पर ......उसके अंदर परवाह कम थी ,अल्हड़ता ज्यादा ! उसके बाल बनाने का ढंग ...चलने का ढंग ....और नाचना तो बस ..एक पागल मोरनी कि तरह ...!


        स्कूल खत्म होने के ठीक २ साल बाद  ही उसकी शादी ..उसकी बड़ी बहन कि शादी के साथ ही हो जाना परिवार कि मजबूरी नही ..किश्मत कि सोची समझी साजिश ही रही होगी ...तभी तो ...शादी को अभी सिर्फ चार साल भी पूरे  नही हुए हैं ..उसके दो मासूम से छोटे बच्चे भी हैं अब तो ....( उसके बारे मैं जब दुसरे दोस्तों से बात होती थी ...तो अक्सर हम बात बात में बात बना दिया करते थे ....इतनी जल्दी शादी और फिर २ बच्चो कि माँ..उसे बिल्कुल भी अक्ल नही है ..कल तक खुद बच्ची लगती थी " मगर आज अपनी कही हुई हर बात बाण कि तरह खुद को ही घायल कर रही है )....किसी कि जिन्दगी में क्या होता है ..और क्या नही होता .... इस सब पर इंसान का बस ही नही है .....


        मेरी रूह काँप रही है शरीर ठंडा पड़ा जा  रहा है बस यही सोच सोच कर ....कि उसने महज तेईस साल कि उम्र में अपने पति को खो दिया है ..दो दिन हो गए हैं जब मुझे पता चला .. एक एक्सीडेंट में उसके पति कि जान चली गयी  .....!.जहाँ से जिन्दगी शुरू होती है ...वहाँ पर उसकी जिन्दगी खत्म हो गयी है. ....पल पल मरना होगा उसे जिन्दा रहने के लिए .....साँसों कि किस्ते भरेगी वो उन दो मासूमों के लिए..... उफ्फ्फ्फ्फ़  ..उसके हिस्से में  जिन्दगी मुझे कहीं नही दिख रही है 


         अभी सात - आठ महीने पहले  ही तो अपने करीबी परिवार में ही जिन्दगी ने जो भयानक हादसा दिखाया था उससे उबरने कि कोशिश में थी ..कि जिन्दगी ने फिर से डरा दिया, इंडिया में थी उस वक्त महज़ बीस दिन के लिए .....जब  अपने एक रिश्तेदार जो बिल्कुल अच्छे दोस्त कि तरह है ..उनकी पत्नी को मौत कि आगोश में सोये देखा था ...उसकी छह महीने बेटी २ दिन मेरी ही गौद में थी..ठंडी पड़ जाती है रूह ..जब उस मासूम का  स्पर्श याद करती हूँ अपनी बांहों में ...जिन दिन उसकी माँ इस दुनिया से विदाई ले रही थी.....और  वो सख्श जो एक हफ्ते कि ग़मगीन बेहोशी जो उसने दवाइयों के सहारे काटी ..और उस बेसुधी के बाद ...सदमे कि वजह से ..तीन महीने पैरालाईज़ होकर बिस्तर पर गुजारे ,..कमर से नीचे का शरीर और पैर साथ नही दे रहे थे .........जब कभी लेटे लेटे ...लेपटाप पर अपना समय बिताने कि कोशिश में ,ऑनलाइन दिख जाते थे तो ...जी तड़प उठता था बात करने के लिए ..मगर शब्द नही मिलते थे ,...हिम्मत नही होती थी पूछने कि ..कि कैसे हो , ...इस बात के लिए भगवान को फिर भी हाथ जोड़ कर शुक्रिया ही कहा जा सकता कि अब वो ठीक हैं ...चल फिर सकते हैं .....मगर जिन्दगी ठहर गयी है 


      कभी कभी सचमुच ....जिन्दगी सोचने पर मजबूर कर देती है ...क्या भगवान सच में हैं ...क्या अच्छे का फल अच्छा ....और बुरे का बुरा ही होता है ....क्योकि मुझे नही लगता ..इनमे से किसी ने भी महज़ ...बीस पच्चीस साल कि उम्र में इतना कुछ बुरा किया है ...जिसकी इतनी बड़ी सजा दी है कुदरत ने ..........जिन्दगी एक बार आती है सबके हिस्से में ...कम से कम जीने के हक के साथ तो आये ! ...मुझे पता है ..जिन्दगी के जाने कितने रूप हैं ...हर  किसी के हिस्से में अलग अलग ...................और ये हादसे ये गम दुनिया में किसी न किसी रूप में हम सभी के इर्द गिर्द होते हैं .....यही सब जीवन है....और जीते जाना प्रक्रति का नियम और हमारी बेबशी ! 


'" कितने अजीब रंगों में बाटी दुनिया को जिन्दगी ....ये कौन खुदा कि इनायतो का बंटवारा कर गया " 
- वंदना 


.[ये ब्लॉग खुद से बतियाने का माध्यम भी है मेरे लिए ..इसलिए अंतर्मन के शोर को हल्का करने के लिए सबकुछ कहा ....आप लोगो से विनती है कि टिपण्णी सोच कर कुछ न कहें ..बस हो सके तो प्रार्थना जरूर करें प्लीज़ .....]









Sunday, March 18, 2012

मेरे हिस्से कि वो चंद बूंदे !



कुछ सदाएं यूंही भटकती 
मुझ तक जब आ जाती है 
बिन आहट बिन दस्तक जैसे 
कोई संदेसा दे जाती है  


कुछ कहने कुछ सुनने को जब 
 ख़ामोशी खुद रास्ता बन जाती है 
वही पुराने राग जब धड़कने 
बैचेनियों में गुनगुनाती है 


कमजोर  पलों कि इस शरगोशी को 
मैं थपकियों से बहलाती हूँ 
सुलझाती हूँ ये भ्रम जाल सुनहरे 
खुद को भी ये समझाती हूँ 


नहीं बरसती ..इन बरसातों में 
अब मेरे हिस्से कि वो चंद बूंदे !




- वंदना 



तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...