Sunday, April 22, 2018




तुम्हे जिस सच का दावा है 
वो झूठा सच भी आधा है 
तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती 

जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं 
कोरे मन पर महज़ लकीरें हैं 
लिख लिख मिटाती रहती हो 
एक बार पढ़ क्यूँ नहीं लेती

उलझी सोचों के डोरे हैं 
ये किस चाल के मोहरे हैं 
ये जंग ए किरदार है तो फिर 
ये एलान कर  क्यूँ नहीं देती 

 आईने सिर्फ आईने  हैं 
ये नजरिया सिर्फ दिखाते हैं 
तुम अपने मुताबिक अक्स अपना 
गढ़ क्यूँ नहीं लेती 


बिखर रहा है आखों में 
उम्मीदों का टूटा हार 
मोती ये अनमोल है तो 
अंजुरी भर क्यूँ नहीं लेती 

किसका कितना हिस्सा तुझमे 
किसकी भागीदारी कितनी 
यूँ रिश्तों में बंटने से पहले 
खुद में अपना भी एक हिस्सा 
कर क्यूँ नहीं लेती 

~ वंदना 





1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-04-2017) को "दुष्‍कर्मियों के लिए फांसी का प्रावधान हो ही गया" (चर्चा अंक-2950) (चर्चा अंक-2947) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...