Thursday, November 17, 2016

दरगाह




वह जो तेरे मेरे बीच था 
न पूरा पूरा इश्क था 
न कोई अधूरी  मोहब्बत । 

कुछ अनकहे और अनसुने 
लफ़्ज़ों की दरगाह थी 

जिस पर दिल कभी 
सर पटक पटक कर  रो लेता था 
तो  कभी ऐसे किसी खुदा को नकारते हुए 
उसे झुठला भी देता था । 

ख़ामोशी की उसी दरगाह पर 
मैंने तुम्हारे नाम
 ऐसे कई प्रेमपत्र चढ़ाएं है 
जिन पर किसी को तुम्हारा नाम 
ढूंढने पर भी न मिले शायद 

लेकिन तुम्हे तुम्हारा पूरा -पूरा  वजूद 
नाम ,पता और अक्स  समेत 
उसकी हर इबारत में महसूस होगा । 

वंदना 

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...