Monday, January 30, 2012

गजल.




साँसों में गुम गयी या नजारों में खो गयी
नज़्म कोई मेरी इन सितारों में खो गयी

दिल के अदब को लहरें देतीं है सलामियाँ
प्यास जो दरिया थी ,किनारों में खो गयी

बात वो दिल कि जिसकी कोई जुबाँ नही
खुशबू बनके उडी और बहारों में खो गयी

 दिल के अदब को लहरें देतीं है सलामियाँ
प्यास जो दरिया थी ,किनारों में खो गयी

नींदे ले उडी हैं ......ये ख़्वाबों कि तितलियाँ
जैसे चाँद कि परी    इन तारों  में खो गयी 


होता बेख्यालियों का   .अपना ही मिजाज़ है 

तरन्नुम थी ग़ज़ल कि  जो अशारों में खो गयी 


- वंदना 




Friday, January 27, 2012

साहिल पर आँखें :)





कितनी खूबसूरत शाम है 
और मैं 
साहिल कि रेत में 
तुम्हारी आँखें बना रही हूँ ..


पता है क्यूं ?
क्यूंकि .. लहरों कि चुनोतियाँ 
स्वीकारी  हैं मैंने ...


 उन्हें  डूबने के अर्थ समझाने हैं 


 कि कितनी ख़ामोशी से
डुबो सकती हैं आँखें
बिना  किसी  आवेश के


एक मौन सी चंचलता के  पीछे
हम उतरने लगते हैं
एक खामोश झील में
बेसुध ,बेफिक्र 
किसी बच्चे कि तरह 
जिसे न गहराई का 
तकाज़ा है ...न डूबने का डर !


ना ना ...इनमे उतरने के 
चलकर जाने कि जरुरत नही 
न लहरों का बवंडर कोई 
जो खींच  ले जाये ...  


बस काफी होता है 
उन पलकों कि कोर पर 
नजर का एक छण
 ठहर जाना ..

देखो.... हारती हुई 

लहरों का गवाह है
ये डूबता हुआ  सूरज 








समंदर हार गया 
आँखें जीत गयीं 


मैं डूब रही हूँ ..


अपनी बांहों का 
सहारा तो दो !!








- वंदना































Saturday, January 21, 2012

मैं गरीब कि भूख हूँ




मैं गरीब कि भूख  हूँ 
और ....ये रोटी 
एक जलता हुआ सूर्य !

सिकता रहा हूँ आजतक 
सिर्फ इसकी तपिश भर से 

गरीबी के भूगोल में 
अपने पेट कि सीमित सी 
जरूरतों कि परिधि पर 
यूँ ही घूमता रहा हूँ 
बिना थके ..बिना रुके !

और झूझता रहा हूँ 
अपने इस सूर्य से 
समर्पित है इसे ही 
मेरी यातनाएं ,वासनाएं 
सब कुछ !

जीने का उद्देश्य हो 
या चलने कि ताकत 
मेरी लिए दोनों कि 
परिभाषा सिर्फ रोटी हैं !


भूख से जीतने कि कोशिश में 
जब भी करीब पहुँच पाया हूँ इसके 
झुलस गया हूँ ,हाथ जल गए हैं 
छिल जाती है रूह ..
निचोड़ लेती हैं इसकी तपिश 
मेरे भाग्य कि रेखाओं के पसीने को ..

जाने कैसे लोग हैं वो 
जिनकी मुट्ठी में कैद रहता है 
मेरी यातनाओं यह संघर्ष !

" आश्चर्य होता है मुझे इस दुनिया 
और दुनिया के बनाने वाले पर 
और सच कहूँ तो खुद पर
इतराता भी बहुत हूँ 

जब इसी सूर्य को किसी 
कचरे के डब्बे में पड़ा देखता हूँ " 


- वंदना 


Thursday, January 19, 2012

त्रिवेणी



नया साल आया ,दिन वही पुराने लौट आए 
अभी जो गुजरे थे ..फिर वही मौसम लौट आए,

 तुम जो लौट आओ ..तो लौट आएँ वो ज़माने भी !!


वंदना




Sunday, January 15, 2012

त्रिवेणी


पहेली है जिंदगी मगर आसान होनी चाहिए
सीरत कि भी आईने से पहचान होनी चाहिए

कैसे भा गया आखिर यूँ  भीड़ में खो जाना ?


--- वंदना

Thursday, January 12, 2012

शायर मन ..

एक आवारा सी ऊब
दिन भर कि भागदौड से
लम्हे चुराकर  एकांत में
कुछ पल ..खुद में 

सिमटकर  बैठ गयी ..



और आलसी सा शायर मन
नींद से बोझिल आँखे लिए
खिड़की पर सिर टिकाये
चाँद के वरक पलट रहा हैं !
 


देख रहा है अपने साथ
जागती.... इस रात को ..
साँसों में उतरती शीतल चांदनी को
जुगनुओं कि जलती बुझती तकदीर को
पत्तो पर फैलती शबनम को ..
.
मगर ढूंढ रहा है उन शब्दों को
जिनमे लपेट सके ये बिखरे हुए
तमाम सितारे ...तलाश रहा है
अपने भीतर एक सन्दर्भ को
ताकि कुछ निर्जीव से
एहसासों को  अर्थ मिल सकें !

मगर दिल के अलाप
उसके  किसी सुर से
समझोता नही चाहते
वह उसी तरन्नुम में बहना चाहते हैं
जो टीस बनकर दबी पड़ी है
सीने कि जाने कौन सी परतो में ..

जिसे बाँधा हुआ उसने अपने
अहम् और स्वाभिमान कि बेड़ियों से
जो अगर गलती से भी खुल जाए
तो ये पुरवाई पतझड़ को
बहारों से भर दे !
थके परिंदों कि उड़ानों को
नये आकाश मिल जाएँ ..
बादल बे मौसम इस तरह बरसें
कि प्यास सावन से हार जाये !.

गीत ..नज्म ..गजल ...
एक इबादत कि तरह
सुकून का मेह बनकर
बरस पड़ें .इस बंजर
मन के आँगन में ..

मगर ये पागल मन
ये समझदारी कभी नही करता
सिर्फ  तलाश रहा है
अर्थहीन बातो के सन्दर्भ
ताकि कोई तुकबंद रचना
अहम् को संतुस्ट कर सके..!



"मुझे लिखकर सुकूँ आया
तुम्हे पढ़कर सुकूँ आया
उसे हार में भी जीत मिली
जिसे शब्दों को जादू  आया "

- वंदना 


Saturday, January 7, 2012

त्रिवेणी



वक्त के पाँव में बेडियाँ  हमसे  डाली नहीं गयीं
अनमोल थी इनायते मगर  संभाली  नहीं  गयीं

जिंदगी सिखाती कम है इम्तिहान ज्यादा लेती है !


- वंदना 

Tuesday, January 3, 2012

त्रिवेणी




हकीकत ए जिंदगी और ये  दिल के भरम
अनमोल होकर भी फिजूल हैं अपने ये गम

सजा बनके रह जाती हैं अक्सर नादानियाँ !

- वंदना 

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...