मैं गरीब कि भूख हूँ
और ....ये रोटी
एक जलता हुआ सूर्य !
सिकता रहा हूँ आजतक
सिर्फ इसकी तपिश भर से
गरीबी के भूगोल में
अपने पेट कि सीमित सी
जरूरतों कि परिधि पर
यूँ ही घूमता रहा हूँ
बिना थके ..बिना रुके !
और झूझता रहा हूँ
अपने इस सूर्य से
समर्पित है इसे ही
मेरी यातनाएं ,वासनाएं
सब कुछ !
जीने का उद्देश्य हो
या चलने कि ताकत
मेरी लिए दोनों कि
परिभाषा सिर्फ रोटी हैं !
भूख से जीतने कि कोशिश में
जब भी करीब पहुँच पाया हूँ इसके
झुलस गया हूँ ,हाथ जल गए हैं
छिल जाती है रूह ..
निचोड़ लेती हैं इसकी तपिश
मेरे भाग्य कि रेखाओं के पसीने को ..
जाने कैसे लोग हैं वो
जिनकी मुट्ठी में कैद रहता है
मेरी यातनाओं यह संघर्ष !
" आश्चर्य होता है मुझे इस दुनिया
और दुनिया के बनाने वाले पर
और सच कहूँ तो खुद पर
इतराता भी बहुत हूँ
जब इसी सूर्य को किसी
कचरे के डब्बे में पड़ा देखता हूँ "
- वंदना
bas mahsus karne laayak kavita hai ye!!
ReplyDeletemujhse galti se ek spam comment delete ho gyi hai ..main maafi chahti hoon ....
ReplyDeleteshukriyaa aap sabhi ka yahan tak aane ke liye :)
भावमय कविता। शुभकामनायें।
ReplyDeleteभूख को जीना आसान नहीं है आज के दौर में ...
ReplyDeleteगहन भाव,सशक्त अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर बिम्ब प्रयोग और सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteसादर बधाई...
न जाने कितने सूर्य तेजहीन हो गए .. बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!
गरीबी का द्वंद व्यक्त करती सुंदर व सार्थक प्रस्तुति।
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