Thursday, April 28, 2011

ग़ज़ल ---






मुझे इस गुनाह का तुम  ये इनाम दे दो 
मुझे हर सजा कबूल है बस इलज़ाम दे दो ..

पता नहीं    ये कौन सी  बेबसी है दिल की
इस आवारगी को अब जो चाहे नाम दे दो ..

इक खुदगर्जी कहीं मुझमें करती है इल्तजा 
मुझे मेरे  वही पुराने  तुम सुबह शाम दे दो 

लम्हा -लम्हा  जिंदगी कह रही है मुझसे 
गुमराहियों को तुम भी अब अंजाम दे दो 

मेरी जिंदगी कि वो अनमोल सी सौगातें 
सब लाद ले चले हो ,कुछ तो दाम दे दो 


दुनिया में प्रीत की  तुम रखलो लाज मोहन 
एक मीरा को उसका  घन श्याम  दे दो 


वक्त लौटा नहीं सकता गुज़रा हुआ बचपन 
वो खट्टे मीठे जामुन वो कच्चे आम दे दो 

बख्शी है खुदा ने नियमत  ए परवाज़ तुम्हे 
इस सफ़र को 'वंदना' तुम  एक मुकाम दे दो 


- वन्दना 
28th April 2011



Saturday, April 23, 2011

कभी मुसव्विर * तो कभी शायर बनाया हमको





जिंदगी कि राह  में अकेला  कर दिया हमको 
फिजूल  कि बस उन दो चार  मुलाकातो  ने ..

धंस गयी दीवारे बिखर गए सब  छप्पर 
क्या किया  देखो , बिन मौसम बरसातो ने ..

कभी मुसव्विर * तो कभी शायर बनाया हमको 
तेरे तसव्वुर से खेलती तमाम उदास रातों ने ..


हमको ही रफाकत का कुछ शोक था यारो 
सलीका सिखा दिया अब इन बेनाम नातों ने 

बढ़कर ही दिया है   बढ़कर ही लिया हैं 
मार डाला जिंदगी   तेरी इन सौगातो ने ..

दिल जला दिया शायद आज फिर किसी का 
मेरे लहजे को जहर करती इन कडवी बातों ने ..


musavvir = chitrkaar 

Tuesday, April 19, 2011

क्या तुझको मेरे यार कहूँ ?



पहला पहला प्यार कहूँ ,या 
जीवन कि पहली  हार कहूँ 
जाने   क्यूं   ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको  मेरे यार कहूँ ?

जिंदगी में ये मेले नहीं थे 
मगर हम इतने अकेले नहीं थे 
यूँ भीड़ में तन्हा होते नहीं थे 
छुप छुप कर यूँ रोते  नहीं थे 

कुछ पल कि वो नींद थी 
छण भर का वो सपना था 
भावों का तोल मोल न था 
कोई बेवजह ही अपना था 

कुछ पल के उस मोहजाल को 
कैसे प्रीत का आधार कहूँ ?

पहला पहला प्यार कहूँ ,या 
जीवन कि पहली हार कहूँ 
जाने क्यूं ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको   मेरे यार कहूँ ?

ऐसी दुआं नही मांगी थी 
बंजर आकाश नहीं चाहे थे, 
जो शीशा बनकर बिखर जाएँ 
कभी ऐसे ख़्वाब नहीं चाहे थे 

अपना सफ़र अपनी  रवानी 
हमको खुद पर बहुत गुरूर था ,
बनकर पीर बसे कोई मन में
ये तो कभी नहीं  मंजूर था 

गूँजता हैं एक शोर हर तरफ 
मुझपर हंस रही है जिंदगी 
कैसे कबूल करूँ सच अपना 
कैसे खुद को एक लाचार कहूँ ?

पहला पहला प्यार कहूँ ,या 
जीवन कि पहली हार कहूँ 
जाने क्यूं ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको   मेरे यार कहूँ ?

जीवन कि कच्ची सड़क पर 
माना मोड़ सब आते जाते हैं 
बस जिंदगी चलती रहती है 
हम क्यूं कहीं   रह जाते हैं !

हो गये मूँह के बोल भी महंगे 
क्यूं खुद पर न जोर हुआ 
दोस्ती सा वो पावन रिश्ता 
क्यूं इतना कमजोर हुआ !


हमने जज्बात नहीं तोले 
कभी लब अपने नहीं खोले 
तुमने मुख  यूँ मोड लिया 
हर ताल्लुक हमसे तोड़ लिया 

अपनी पाक भावनाओं का 
दोस्त ,कैसे ना त्रिस्कार कहूँ ?

पहला पहला प्यार कहूँ ,या 
जीवन कि पहली हार कहूँ 
जाने क्यूं ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको   मेरे यार कहूँ  ?




-वन्दना  


Thursday, April 14, 2011

ग़ज़ल










मेरी साँसों में बसो  मीठी सी हवा होकर  
देखो अंधेरो के वास्ते कोई  शुआ होकर 

होके संजीदा ढूँढती है आवारगी मेरी 
खो गया गगन में कोई परिंदा होकर 

हर मोड़ पे रुक रुक के देखा किया हमने 
जैसे कि चला हो कोई साथ  साया होकर  

बेनाम सी सदाओं ने आजमाया बेसबब 
तुम  भरम तोड़ चले झूठी जफा होकर 

हमको हर गुनाह कि सजा मंजूर हुई 
खुश रहेंगे  हम भी तुमसे जुदा होकर 

रोशन थी चिरागों कि तरह आँखों में मेरी 
आज उड़ गयी वो इबादत भी  धुंआ होकर 






vandana 





Tuesday, April 12, 2011

चलो देखें ग़ज़ल कि रगों में उतरकर ..






न हम बोलते हैं न हमारे राज़ बोलते हैं 
कलम बोलती है ये अल्फाज़ बोलते हैं !


बोलती है ज़हन में कैद एक तरन्नुम 
साँसों में बसे ये सब साज़ बोलते है !

गूंजता है लबो पे जब तराना कोई 
ज़ब्त के वो सारे अंदाज़ बोलते है !

कटे पंख देखते है कोई उंची अटारी
पंछी के ख्याल ए परवाज़ बोलते हैं !

चलो  देखें ग़ज़ल कि रगों में उतरकर 
किस तरह ये गूंगे अल्फाज़ बोलते  हैं !!





वन्दना 







Monday, April 4, 2011

सलीका जीने का ये दीपक सिखा रहा है







जलते रहकर उजालो को दुआ देते रहो 
है यही दस्तूर तो आप भी निभाते रहो 

सलीका जीने का ये दीपक सिखा रहा है 
अपने हिस्से के अँधेरे को संजोते रहो 

तुमसे मिलती है किरदारों को जिंदगी 
खुद में खोकर कहीं , फ़साना होते रहो 

जरूरी है खुद पर ये एतबार  बना रहे 
तुम आईने से रोज़ आँख मिलाते  रहो 

हमने तहरीर को भी सच होते देखा है 
तुम बादलों  में कोई चेहरा बनाते रहो 


'वंदना '






तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...