पहला पहला प्यार कहूँ ,या
जीवन कि पहली हार कहूँ
जाने क्यूं ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको मेरे यार कहूँ ?
जिंदगी में ये मेले नहीं थे
मगर हम इतने अकेले नहीं थे
यूँ भीड़ में तन्हा होते नहीं थे
छुप छुप कर यूँ रोते नहीं थे
कुछ पल कि वो नींद थी
छण भर का वो सपना था
भावों का तोल मोल न था
कोई बेवजह ही अपना था
कुछ पल के उस मोहजाल को
कैसे प्रीत का आधार कहूँ ?
पहला पहला प्यार कहूँ ,या
जीवन कि पहली हार कहूँ
जाने क्यूं ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको मेरे यार कहूँ ?
ऐसी दुआं नही मांगी थी
बंजर आकाश नहीं चाहे थे,
जो शीशा बनकर बिखर जाएँ
कभी ऐसे ख़्वाब नहीं चाहे थे
अपना सफ़र अपनी रवानी
हमको खुद पर बहुत गुरूर था ,
बनकर पीर बसे कोई मन में
ये तो कभी नहीं मंजूर था
गूँजता हैं एक शोर हर तरफ
मुझपर हंस रही है जिंदगी
कैसे कबूल करूँ सच अपना
कैसे खुद को एक लाचार कहूँ ?
पहला पहला प्यार कहूँ ,या
जीवन कि पहली हार कहूँ
जाने क्यूं ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको मेरे यार कहूँ ?
जीवन कि कच्ची सड़क पर
माना मोड़ सब आते जाते हैं
बस जिंदगी चलती रहती है
हम क्यूं कहीं रह जाते हैं !
हो गये मूँह के बोल भी महंगे
क्यूं खुद पर न जोर हुआ
दोस्ती सा वो पावन रिश्ता
क्यूं इतना कमजोर हुआ !
हमने जज्बात नहीं तोले
कभी लब अपने नहीं खोले
तुमने मुख यूँ मोड लिया
हर ताल्लुक हमसे तोड़ लिया
अपनी पाक भावनाओं का
दोस्त ,कैसे ना त्रिस्कार कहूँ ?
जीवन कि पहली हार कहूँ
जाने क्यूं ये सोच रही हूँ ,
क्या तुझको मेरे यार कहूँ ?
-वन्दना