Tuesday, November 10, 2009

मुक्तक

मुझे आदत है इन अंधेरो में रहने कि ...
ऐ जिन्दगी ये ख्वाबो के भ्रमित उजाले ...
मुझे ना दिखलाया कर ...
मेरे शहर कि हवाएं बड़ी जालिम है ...
यहाँ चिरागों कि उम्र ज्यादा नहीं होती ........

2
जिन्दगी के मायने लाख समझाए मैंने ....
कितने अरमां शीशे से ....तोडे ,
कितने जज्बातों के... मूक बुत... ढहाए मैंने...
अब तो छोड़ा है इनके हाल पर इनको ,
ये न कभी बाज आएँगी.....
बड़ी बेगैरत है ये दिल की मुरांदे ...ऐ खुदा ,
जलील होकर भी तेरी चोखट पे बार बार आएँगी ........

ऐ जिन्दगी तेरे सोदें मुझे कभी ना समझ आये ....

खुद ही को रखके गिरवी यहाँ चंद खुशिया उधार आती है ,

किस पलडे में तोलू मैं तेरी इस तिजारत को ......

लम्हों कि जीत कि खातिर...

ख्वाहिशे क्यूं सदियाँ हार जाती है...

4

ऐ जिन्दगी मैंने हर लम्हे को दिल से समेटा है ...
फिर भी क्यूं हर पल में कुछ छूट जाता है ,
वो (खुदा ) वाकिफ है मेरी हर एक बिलखती
नादाँ ख्वाहिश से ..फिर भी क्यों हर बार मुझसे रूठ जाता है

5

ऐ आईने ...मेरी हसरत ए नादानिया, जूनून ,वैराग्य....
और इस पागलपन के अंदेशे न लगाया कर ....तू सोच ....
के मस्त रवानी में बहती हवाओं की
बेताबिया के राज भला किसने जाने है ?......

6

जाने किस रुख में.. हमें बहा ले गयी तन्हाई ...
ख्वाबो के वीराने में आकर जाना हमने ,
पतझर में .. गुल ऐ शाख को आख़िर ....
क्यूं महंगी पड़ जाती है पुरवाई....

Saturday, November 7, 2009

जिन्दगी के साथ चलते ...
ख्वाबो के सुनहरे जग मगाहतो में
एक खूबसूरत से मोड़ पर ...
मैंने जिन्दगी से नजर चुराई ...
कहा ..ऐ जिन्दगी तू चल मैं आई..
जिन्दगी चलती रही पीछे मुड़कर भी न लखाई (देखा) ,,
वो भ्रम के थे उजाले जाने कहाँ खो गए....
खुद को मैंने अंधेरो में घिरा पाया ...
मैं सहमी जरा घबराई ....
मैंने फिर जिन्दगी को आवाज लगाईं....
वो न ठहरी....मैंने ही रफ़्तार बढाई ...
मुझे फिर साथ पाकर वो मुझ पर हंसी ,
मैंने भी सांस ली ...वो मुस्कुराई ...
तब एक बात अक्ल में आयी ....
जिन्दगी क्या है ये समझने के लिए
शायद ये पागलपन जरूरी था ...






तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...