वो बचपन ..वो नादानिया
वो शरारते ..वो मनमानिया
"वो गावं ..वो गलियारे
वो आँगन ..वो चोबारे ....
जहाँ रिस्तो की ऊँगली पकड़कर मैंने ख़ुद को
पहली बार नन्हे कदमो पर चलते देखा था
रिस्तो का वो एक मेला था जहाँ हर एक कंधे पर
मने ख़ुद को झूलते देखा था "
सरकार की नोकरी ने घर की जरूरतों ने पापा को
विदेश का रास्ता दिखाया था॥
६साल की थी जब ,नम आँखों से उस प्लेन को उड़ान भरते देखा था
'भीगी भीगी पलकों से ..
माँ को चिट्ठियाँ पढ़ते देखा था
टूटी फूटी सब्द रचना से ख़ुद को चिट्ठिया लिखते देखा था "
खेतो के बीच से निकली उस पगडण्डी पर
मैंने ख़ुद को स्कूल जाते देखा था
नन्हे नन्हे कदमो से जब नदिया के पुल से उतरती थी
तो ख़ुद को नदिया की गहरायी के डर से उबरते देखा था
बढ़ते कद के साथ.. अपनी मासूमियत को शातानियो में बदलते देखा था "
ख़ुद को स्कूल के रेतीले आँगन में फर्स बिछाकर पढ़ते देखा था
स्कूल से आते जाते ..अमरुद चुराना तो बहुत चोटी सी बात थी
खेतो से चुराई मटर के दानो पर मैंने ख़ुद को
अपनी सहेलियों से झगड़ते देखा था ....."
वो सावन के झूले ... वो जामुन के पेड़
वो कच्चे आमो के दिन ...वो बचपन के खेल
गुड्डे गुडिया की सादी में मैंने ...
माँ की चूनर ओढ़कर ख़ुद को नाचते देखा था "
हर सांझ ढले अपने बाड़े में ..
मैंने मोर नाचते देखा था
नंगे पैरो उन कंटीली झाडो में ....
ख़ुद को मोर के पीछे भागते देखा था "
पेड़ के ऊपर बनी छाल पर दादा के साथ बैठकर ..
ख़ुद को कोएँ उड़ते देखा था
आज भी याद है उस बहते पानी की शीतलता....
जब खेतो के बीच बनी नालियों में मैंने ख़ुद को छप छप करते देखा था "
कितना प्यार था उन गलियों को मुझसे......
जिसकी धूल में मैंने ,,...अपने पग चिह्नों को बनते देखा था
मेरा गाँव.......... मानो जग का सबसे सुंदर कोना था वो....
जहाँ घर की कच्ची
छतो पर मैंने हरी घास को उगते देखा था
१२ साल की उम्र में मैंने ख़ुद को उस गाव से बिछड़ते देखा था "
अब नए शहर की गलियों नाता जुड़ते देखा था
एक नए घर में ख़ुद को
अपने बचपन की देहलीज से आगे निकलते देखा था .....
मोसम की तरेह जिन्दगी के रुख बदलते रहते है
वक्त के थपेडो से हालत बदलते रहते है
जिन्दगी की डगर एक ही रहती है बस मोड़ बदलते रहते है
पिछले साल मैंने ख़ुद को इस बेगाने देश में उतारते देखा था
१३ सालो तक हर साल पापा को एअरपोर्ट लेने आती थी
पहली बार पापा को हमारी राह तकते देखा था ..........
"आज मेट्रो में बैठ कर उन पुरानी यादो में खोई हुई थी
पता नही कब स्टेशन पीछे निकल गया मैं बैठी रह गयी...
जब उतरी किसी दूसरे अनजान स्टेशन पर
ख़ुद को नम आंखों से.... अपने आप पर आज हस्ते देखा था "