जब सुअम से अनजान थी तो समझदार कहलाती थी , खुद की परख ने हमें पागल बनाया है
जिन्दगी तो हंसकर जलाती रही , तजुरबो ने अब चलना सिखाया है
ऐ आस्मां इन बदलियों से कहदे .. मेरी अटरिया से होकर न गुजरे
समंदर की लहरों से अब मैंने रिश्ता बनाया है
मिटाकर खुद को कागज की कश्ती की तरह
मैंने खुद को दुआ की तरह पाया है..
गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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जितना खुद में सिमटते गए उतना ही हम घटते गए खुद को ना पहचान सके तो इन आईनों में बँटते गये सीमित पाठ पढ़े जीवन के उनको ही बस रटत...
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वफायें ..जफ़ाएं तय होती है इश्क में सजाएं तय होती हैं पाना खोना हैं जीवन के पहलू खुदा की रजाएं.. तय होती हैं ये माना... के गुन...
तजुरबो ने अब चलना सिखाया है,
ReplyDeleteमैंने खुद को दुआ की तरह पाया है.
padh kar accha laga vandana!