Tuesday, June 29, 2010

कर्जवान

ek kamjor si najm hai ..sayad isme bhi kuch sudhar ho sakta tha ..par nahi kiya uske liye sorry ..jhelo aap sab :)


चुराए थे कुछ रंग
कल सांझ इन्द्र धनुस से
कुछ तितलियों से उधर लिए थे ..
कुछ सफ़क पर फैली
लालिमा समेटी थी
इन आँखों में मैंने ..

और हाँ
फूलो से भी
मिलना हुआ था मेरा
नजरो ने उनसे भी
उधारी कर ली ...

सोचा था
सजा कर एक ख़्वाब
बाँट दूँगी सबको ..
महकेगी फिजाओं में
उस एक ख़्वाब कि खुशबू ......

आदत से मजबूर
छलक ही गए ये आंसू पलकों से .
धुल गया वो बिन सजा ख़्वाब
कितने फीके निकले सारे रंग ..

और मैं बेकार में कर्जवान हो गयी.

Friday, June 18, 2010

एक आजाद नज्म





मैं खुद को सौप कर
अल्फाजो को एक रोज,
खुद कि कैद से
अपनी रिहाई लिखूंगी ..
.
कर उम्मीद तू ए दिल
मिलेगी जुबाँ एक रोज तुझे
मैं उसूलों को
जिन्दगी कि दुहाई लिखूंगी..

समेटकर ,कलेजे में
कैद पंछी के बिखरे हुए
सारे पंख, मैं एक रोज
उसे परवाज दूँगी ..

मैं तोडूंगी
एहसासों कि बेडिया .
.हर जज्बात का एक
आसमान लिखूंगी ..

धागा धागा पीर का सुलझाकर
मैं जिन्दगी कि प्रीत बूनूंगी
मोहब्बत कि हर रश्म के सजदे में
दुनिया के लबो पे गुनगुनाता
एक गीत लिखूंगी..


साहिल के रेत कि प्यास लिखूंगी
सागर कि तड़पती मौज लिखूंगी
मैं एक आजाद नज्म एक रोज लिखूंगी
खुद को अम्रता तुझको इमरोज लिखूंगी .

vandana singh
18/6/2010

Monday, June 14, 2010





आसमां कि चादर पर जब सितारे जगमगाये रहते हैं..
चाँद कि पलकों पे कितने ख़्वाब झिलमिलाये रहते हैं..

चांदनी बासी धूप फांक कर आई हो जैसे शफ़क से,
जुगनूं जाने किस बात पर इतना शरमाये रहते है ..

मेरी आँखों में आईना देखती हैं इठलाती हुई वादियाँ
जाने क्यूं , कुछ खामोश नज़ारे सकपकाये रहते हैं..

ताल्लुक गुमसुम और फासले बहुत उदास होतें हैं
जाने क्यूं वो खुद से इतना घबराये रहते हैं..

मेरी तन्हा रातों कि गहन उदासी भारी पड़ेगी बज्म को
मूक अल्फाजों से ये बेबस अफ़साने झल्लायेरहते हैं .

इन एहसासों, ख्यालो से कोई साझा नहीं अपना
हम पीर कोई बेगानी सीने से लगाये रहते है ..

तपती हुई आँखों में कुछ ख़्वाब हैं जले भुने से ..
धुंए को कैद कर , अश्को से आग बुझाये रहते हैं ..

हर बार जानबूझकर कर लेतें हैं एक नादान खता
तजुर्बे ... हम से ... झुंझलाये रहते हैं .


vandana singh
6/14/2010

Thursday, June 10, 2010



जिस डगर पे मंजिल मेरी नहीं

उस डगर से मुझे वास्ता क्यूं हो

जो इबादत मुझे बख्शी नहीं रब ने

उसमे मुझे आस्था क्यूं हो...


जिसे जाते हुए रोका नहीं मैंने

वो पलट कर ना देखे तो गिला क्यूं हो

शिकवा भी जिससे हम कर नहीं पाए

फिर रूठने मनाने का सिलसिला क्यूं हो .

Monday, June 7, 2010

कुछ मुक्तक

1

एक चुभन से सिहर उठे....

जरा सी पीर नहीं सह पाए हो..

बिखर गए एक ठोकर से ही,

इस पथरीले शहर में क्या नये नये से आये हो..



2

थोड़ी सी नजाकत ..थोड़ी सी होशियारी दे मोला ..

अदब से जीने कि हमें भी अदाकारी दे ..

सलीका मेरी नादानियों को बख्श

हमें भी थोड़ी सी समझदारी दे मोला ... |



3

कुछ नजरो ने कहा ..कुछ लबो पे रहा ..

कुछ छुपाना पड़ा हमको ना चाहते हुए..

कोई पूछे ना इन आँखों कि नमी का मतलब,

हम मिलते हैं हर किसी से मुस्कुराते हुए...






4



देकर दिलासे जिन्दगी समझाया करती है
मोहब्बत करता कोंन है, हो जाया करती है





5.


बाँध रहे यादो कि गठरी ..जैसे बचा कुचा सामान ..
जाने किस नगर को जाये ,अपने सपनो का ये यान



वही चाँद ..

वही तारे ..

वही जानी पहचानी सी डगरिया,

निंदिया बाँध कर

मेरी आँखों पर

जादू कि पट्टी...

ले चली मुझे

जाने किस नगरिया ...

Saturday, June 5, 2010


आज ले चल री निन्दियाँ

ये उड़न खटोला

चंदा के शहर में ...

मैं पलकों पे सजाने को

सितारे तोड़ लाऊँगी..

:)

चांदनी आज ..

मेरे आँचल में.

सब सितारे छुपा गई,

आज चाँद ..

उस महफ़िल में

अकेला...

मूह लटकाए बैठा है.

Friday, June 4, 2010

मेरे दिल कि बेख्याली से..
नींद कि दुश्मनी पुरानी है ..
जब जब जागती पलकों पर
स्वप्न गढ़ता है ............नींद
वक्त से पहले चली आती है....

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...