जिस डगर पे मंजिल मेरी नहीं
उस डगर से मुझे वास्ता क्यूं हो
जो इबादत मुझे बख्शी नहीं रब ने
उसमे मुझे आस्था क्यूं हो...
जिसे जाते हुए रोका नहीं मैंने
वो पलट कर ना देखे तो गिला क्यूं हो
शिकवा भी जिससे हम कर नहीं पाए
फिर रूठने मनाने का सिलसिला क्यूं हो .
Sawal to bahut wazib hain ....jawab yahi de sakte hain ki insaan ki tendency yahi hoti hain .....bahut khoob likha
ReplyDeleteसार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर !
ReplyDeleteकविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !
Arey haan.....ek tareef choot gai thi....blog sundar lag raha hai
ReplyDeleteSooooooo true vandu yaar.....bahut hi sahi baat kahi hai....toooo goooood.... :)
ReplyDeletethanks priyaa.. dono hi tareefo ki liye :)
ReplyDelete@ sanjay ji ..... bahut bahut shukriyaa :)
ReplyDelete@neeer ....thanks a lott neer :)
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