Thursday, June 10, 2010



जिस डगर पे मंजिल मेरी नहीं

उस डगर से मुझे वास्ता क्यूं हो

जो इबादत मुझे बख्शी नहीं रब ने

उसमे मुझे आस्था क्यूं हो...


जिसे जाते हुए रोका नहीं मैंने

वो पलट कर ना देखे तो गिला क्यूं हो

शिकवा भी जिससे हम कर नहीं पाए

फिर रूठने मनाने का सिलसिला क्यूं हो .

8 comments:

  1. Sawal to bahut wazib hain ....jawab yahi de sakte hain ki insaan ki tendency yahi hoti hain .....bahut khoob likha

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  2. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  3. बहुत सुंदर !
    कविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !

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  4. Arey haan.....ek tareef choot gai thi....blog sundar lag raha hai

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  5. Sooooooo true vandu yaar.....bahut hi sahi baat kahi hai....toooo goooood.... :)

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  6. thanks priyaa.. dono hi tareefo ki liye :)

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  7. @ sanjay ji ..... bahut bahut shukriyaa :)

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  8. @neeer ....thanks a lott neer :)

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...