बंद दरिचो से गुजरकर वो हवा नहीं आती
उन गलियों से अब कोई सदा नहीं आती ..
बादलो से अपनी बहुत बनती है, शायद
इसी जलन में धूप कि शुआ* नहीं आती ..
अच्छे लगते है मुझे ये खामोश से जख्म
कर सकें कुछ बयां इन्हे वो जुबाँ नही आती
जिंदगी ने भी क्या खूब सबक सिखा दिए
दिल में अब फिजूल कोई इल्तजा नहीं आती ..
शोक ए दीद* से उसकी हारे हुए हैं बेशक,
लब पे कभी कोई खुदगर्ज दुआ नहीं आती ..
एक ख़्वाब के मानिंद जाने कब से सोया हूँ
मुझे जगाने क्यूं कोई सबा* नही आती !!
शुआ= किरण
शोक ए दीद = दर्शन कि अभिलाषा
इब्तिदा = परिचय
सबा = सुबह कि हवा
- वन्दना