Tuesday, November 30, 2010

मुझे जगाने क्यूं कोई सबा नही आती !!





बंद दरिचो से गुजरकर वो हवा नहीं आती 
उन गलियों से अब कोई सदा नहीं आती ..

बादलो से अपनी बहुत बनती है,  शायद  
इसी जलन में धूप कि शुआ* नहीं आती ..

अच्छे लगते है मुझे ये खामोश से जख्म  
कर सकें कुछ बयां इन्हे वो जुबाँ नही आती 

जिंदगी ने भी क्या खूब सबक सिखा दिए 
दिल में अब फिजूल कोई इल्तजा नहीं आती ..

शोक ए दीद* से उसकी   हारे हुए हैं बेशक, 
लब पे कभी कोई खुदगर्ज दुआ नहीं आती ..

एक ख़्वाब  के मानिंद जाने कब से सोया  हूँ 
मुझे जगाने क्यूं  कोई  सबा* नही आती   !! 



शुआ= किरण 
शोक ए दीद = दर्शन कि अभिलाषा
इब्तिदा = परिचय  
सबा = सुबह कि हवा 

- वन्दना 


Sunday, November 21, 2010

माफ़ी




आज कुछ पुराने पन्ने पलटे 
अपने आप से मिलना हुआ.
कुछ खूबसूरत पल मुस्कुराकर मिले.
मानो खिल से गए हों 
मुझे लौटते देखकर ..
मगर अगले ही पल 
जाने क्यूं नाराज़गी में 
मुझसे मूँह  फेर लिया  ..
शिकायत भरी खामोशी 
ने कितने सारे इल्जाम 
जड़ दिए मेरे शर्मसार चेहरे पर ..
हया से गड़ गयी मेरी आँखे 
जमीर कि जमीं के भीतर तक   ..

मगर , मेरी आँखों के पानी में 
बह गयी मानो उनकी सारी नाराज़गी 
खिलखिलाकर हंस पड़े सब के सब मुझपर 
और मुझे जैसे फिर से जी उठने को 
हिम्मत कि एक चाबी
 मेरी उम्मीदों को सौंप दी ..

मगर चाबी अपने हाथो में लिए 
मैं आज बस यही सोच रहीं हूँ 


उस पागलपन के लिए मुझे 
तुम भी माफ़ तो कर दोगे ना ..??



Monday, November 15, 2010

गीत ...



कुछ घुट रहा है साँसों में 
कुछ जल रहा है सीने में 
क्यूं पल पल मर रहे  हैं 
जिंदगी  तुझको जीने में !
................................
समझ आता नहीं कुछ 
ये   क्या   हो  गया  है 
ऐसा क्या पा लिया था 
     जो  हमसे  खो  गया  है -2

अपनी सी सूरत नहीं 
अब   इस  आईने में ..

कुछ घुट रहा है साँसों में 
कुछ जल रहा है सीने में 
क्यूं पल पल मर रहे  हैं 
जिंदगी  तुझको जीने में !
..............................
ये   कैसी है   सदायें 
हर पल बेचैनी बढ़ाएं 
बेफिजूल  सी उदासी 
     क्यूं रातो को जगाये -2

कतरा कतरा बिखर गए 
खुद  को आजमाने में ...

कुछ घुट रहा है साँसों में 
कुछ जल रहा है सीने में 
क्यूं पल पल मर रहे  हैं 
जिंदगी  तुझको जीने में !
............................
गगन के   टूटें तारें   
भीगें   नयन  हमारे 
किसको दें आवाज हम 
   तड़पकर किसे पुकारे -2

हुआ है कौन किसका 
कभी इस जमानें में 

कुछ घुट रहा है साँसों में 
कुछ जल रहा है सीने में 
क्यूं पल पल मर रहे  हैं 
जिंदगी  तुझको जीने में 
...........................
जो कभी  चाहा नहीं 
वो फिर  हुआ है क्यूं 
है जब आग नहीं 
     तो फिर धुंआ है क्यूं  -२


क्यूं जल गया मुंह अपना 
एक अमरित पीने में



कुछ घुट रहा है साँसों में 
कुछ जल रहा है सीने में 
क्यूं पल पल मर रहे  हैं 
जिंदगी  तुझको जीने में !


-वंदना 


Monday, November 8, 2010

ये समझदारी अच्छी नहीं होती !





बिन पंखो कि     ये उड़ारी  अच्छी नहीं होती ,
सच मानो ये स्वप्न सवारी  अच्छी नहीं होती !

आईना भी देखकर    अब   मुस्कुराने लगा है,
आँखों कि बेहिसाब खुमारी  अच्छी नहीं होती !

जिसकी खातिर दुआ करने कि भी मनाही हो, 
फिर उस चीज़ कि तलबगारी  अच्छी नहीं होती !

टूटकर चाहो  किसी को   कोई बुरा नहीं ,  मगर.. 
अपने अहम् से बढ़कर वफादारी  अच्छी नहीं होती !

कुछ खोकर कुछ पाने कि चाह ले बैठेगी  एक रोज़,  
यकीं मानो ये फिदरत ए जुआरी  अच्छी नहीं होती !

"वंदना" जो खुद नहीं समझा  वो दूसरो को समझाओ , 
समझ से आगे कि  ये समझदारी  अच्छी नहीं होती !





Sunday, November 7, 2010

तगाज़े





खुद से भागते भागते 
सिर्फ एक पल 
ठहर जाने कि तमन्ना 
जिंदगी कि दौड़ में मुझे 
इतना पीछा कर देगी 
सोचा नहीं था !

क्या कसूर था मेरा 
आखिर सिर्फ इतना ही 
अपने वजूद कि  सीमाओं को 
कभी  पार नहीं  किया 
इन छोटी आँखों ने कभी 
बड़े ख़्वाब नहीं देखे 
अपनी हदों से बढ़कर 
कोई  आरजू नहीं पाली 
बेबुनियाद कभी किसी से 
कोई इल्तजा नहीं रही

खुद को हार कर हमेशा ही  
जिंदगी से रिश्तो को जीता 
वो रिश्ते ...जिनकी  
लहू कि रगों से बंधी थी मैं .
कुछ वो  जिनकी 
टहनी पर पात सी खिली थी  
कुछ वो रिश्ते जिन्होंने 
मामूली से फूल   कि तरह 
भरे बाग़ से चुनी थी मैं ..

कुछ भी पाकर बहुत  इतराना 
कभी अच्छा नहीं होता 
जाने किस बात का जोम *
कब कहाँ आइना दिखा दे 
पता नहीं चलता  ....

डर लगने लगा है जिंदगी के 
इस नए चेहरे से ...जो हमेशा 
कुछ न कुछ पढने कि 
कोशिश करता रहता है 
मेरे हाथो कि लकीरों में

खुद से भागना चाहती हूँ 
छोटी छोटी बातों पर 
माँ कि  निराश आँखे 
मुझ पर गड़ती देख 
या जब कभी पिता कि उम्मीदों से 
आँख मिलाने कि हिम्मत
जुटा पाती हूँ 

तो फिर अपने आप से छुपकर 
जब कुछ घडी अकेले बैठना चाहती हूँ तो 
याद आता है ताली मारकर हँसता बचपना 
वो हर लापरवाही के भागिदार दोस्तों का समूह 

तुम्हारा साथ मानो बिल्कुल ऐसा  ही था 
मुझे अकेले में बैठे देख
 हाथ पकड़कर जैसे 
अपने खेल खिलोनो में
 मुझे भी शामिल करने जैसा 
तुम्हे पाकर ही जाना 
दोस्ती जरुरत और आदत 
किस  तरह बन जाती है 
.
हमेशा याद रखूंगी वक्त कि उस सौगात को ..
हमेशा कर्जवान रहूंगी तुम्हारे उस उपकार कि ..
मगर  क्या चाह कर भी कभी भूल पाऊँगी 
अपनी पाक  भावनाओं के उस त्रिस्कार को ?



"कभी चाह नहीं मिलती कभी राह नहीं मिलती 
बहुत डरने लगे हैं जिंदगी अब तेरे तगाजों से"



- वन्दना 

Saturday, November 6, 2010

एक सवाल






इन सपनो ,ख्वाइशो व उम्मीदों से
अपने वजूद कि किश्तों को समेटना मतलब 
बिखरे हुए आईने में अक्श समेटने जैसा है ! 

एक कभी ना खत्म होती तलाश 
कभी ना मिटने वाली प्यास ..
कभी हार को जीत कहना 
कभी जीतकर भी हारना 
हर कदम पर एक नयी ठोकर 
गिर गिर कर संभलते  रहना 
यही सब जिदगी है शायद !

समझदार हो चली अब 
हर एक आरजू ..हर एक ख्वाइश 
सब अधूरी तमन्नाएँ ..
समझ आने लगें है अब 
तकाज़े .....दस्तूर ...उसूल .!.

अब कोई इल्तजा पंख फैलाने 
कि जुर्रत नहीं करती 
जहन के इस सख्त पिंजरे में ..

मगर दिल कि परतों में 
दबी कोई  खलिश सी 
बहुत चुभती है कभी कभी 
लहुलुहान हो उठती है रगें 
जब कोई बुरी तरह 
जख्मी सा मेरे भीतर कुछ 
पूछ लेता है मुझसे  ..

"जिंदगी जीने के लिए 
दुबारा क्यूं नहीं मिलती ??"

खलिश





वो एक खलिश ..
ये चुभते  हुए एहसास 
कितनी आसानी से आज 
मूरत हो जाना चाहतें हैं 
जैसे सारे के सारे अल्फाज
मेरे ख्यालो को एक 
खूबसूरत  शक्ल देना चाहते हों 

टूटे हुए  ख्वाबों के 
झरोखों से चलती हवाएं 
दिल के जले हुए 
अरमानों कि राख को 
कहीं उड़ा देना चाहती हैं जैसे,!
सारे जज्बात एक नज्म कि तरह 
ठहर जाना चाहते हैं  
कागज़ कि तकदीर बनकर !

जाने ये क्या है आज जो 
मेरे भीतर के सन्नाटो को 
चीरकर बेहद शोर करता हुआ
मुझे  बहने पर मजबूर कर रहा है 
एक लम्बी ख़ामोशी सब कुछ बयाँ 
करने आतुर सी क्यूं है ??

मैं एक के बाद एक अपनी 
उछटि नींद ..टूटे ख़्वाब  
और बिखरे एहसास कि किरचों कि किश्ते
चुन चुन कर कागज़ पर सहेज  रहीं हूँ

डर लग रहा है 
इन दिशा हीन हवाओं से 
इस गुजारते हुए तूफ़ान से 
जिसके जाने बाद एक 
लम्बा सन्नाटा पसार जायेगा 
बहुत  दूर तक खामोशियाँ 
बेजुबां होकर अकेले 
भीड़ भरे रास्तो से गुजरेंगी. .

आज मैं अंतर्मन में उठते
इस अजीब से शोर को 
कान दबाये सुन रही हूँ 
मगर कुछ पल बाद जिंदगी 
कि हवाएं फिर से 
मध्दम हो जाएँगी 

तब सिर्फ सुनाई देगी 
अकेले सफ़र में कदमो कि आहटे
इज्तराब में दौडती धडकनों को शोर 
जो इस शोर से कहीं ज्यादा 
भयानक होता है मेरे लिए 
बिखेर कर रख देता है जब  
मेरे आत्मविश्वास को .!

"किसी माटी के खिलौने को 
भिगो कर मिटाना 
कितना आसान होता है न ?"



- वन्दना  



तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...