खुद से भागते भागते
सिर्फ एक पल
ठहर जाने कि तमन्ना
जिंदगी कि दौड़ में मुझे
इतना पीछा कर देगी
सोचा नहीं था !
क्या कसूर था मेरा
आखिर सिर्फ इतना ही
अपने वजूद कि सीमाओं को
कभी पार नहीं किया
इन छोटी आँखों ने कभी
बड़े ख़्वाब नहीं देखे
अपनी हदों से बढ़कर
कोई आरजू नहीं पाली
बेबुनियाद कभी किसी से
कोई इल्तजा नहीं रही
खुद को हार कर हमेशा ही
जिंदगी से रिश्तो को जीता
वो रिश्ते ...जिनकी
लहू कि रगों से बंधी थी मैं .
कुछ वो जिनकी
टहनी पर पात सी खिली थी
कुछ वो रिश्ते जिन्होंने
मामूली से फूल कि तरह
भरे बाग़ से चुनी थी मैं ..
कुछ भी पाकर बहुत इतराना
कभी अच्छा नहीं होता
जाने किस बात का जोम *
कब कहाँ आइना दिखा दे
पता नहीं चलता ....
डर लगने लगा है जिंदगी के
इस नए चेहरे से ...जो हमेशा
कुछ न कुछ पढने कि
कोशिश करता रहता है
मेरे हाथो कि लकीरों में
खुद से भागना चाहती हूँ
छोटी छोटी बातों पर
माँ कि निराश आँखे
मुझ पर गड़ती देख
या जब कभी पिता कि उम्मीदों से
आँख मिलाने कि हिम्मत
जुटा पाती हूँ
तो फिर अपने आप से छुपकर
जब कुछ घडी अकेले बैठना चाहती हूँ तो
याद आता है ताली मारकर हँसता बचपना
वो हर लापरवाही के भागिदार दोस्तों का समूह
तुम्हारा साथ मानो बिल्कुल ऐसा ही था
मुझे अकेले में बैठे देख
हाथ पकड़कर जैसे
अपने खेल खिलोनो में
मुझे भी शामिल करने जैसा
तुम्हे पाकर ही जाना
दोस्ती जरुरत और आदत
किस तरह बन जाती है
.
हमेशा याद रखूंगी वक्त कि उस सौगात को ..
हमेशा कर्जवान रहूंगी तुम्हारे उस उपकार कि ..
मगर क्या चाह कर भी कभी भूल पाऊँगी
अपनी पाक भावनाओं के उस त्रिस्कार को ?
"कभी चाह नहीं मिलती कभी राह नहीं मिलती
बहुत डरने लगे हैं जिंदगी अब तेरे तगाजों से"
- वन्दना
सुन्दर रचना!
ReplyDeleteयादों को समेटे सुन्दर अभिव्यक्ति। शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत कशमकश है ..ज़िंदगी ऐसी ही कशमकश का नाम है ...
ReplyDeleteबेहद गमगीन प्रस्तुति…………बहुत दर्द है।
ReplyDeleteआपके साथ भावों में उतरना , गोता लगाना सुखद लग रहा है. सुन्दर रचना . बधाई .................
ReplyDeleteमन के एहसासों को बहुत इमानदारी से शब्दों की माला में पिरो कर सुंदर रचना का सृजन किया है और अंत बहुत ही छूने वाला रहा.
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