Sunday, April 22, 2018




तुम्हे जिस सच का दावा है 
वो झूठा सच भी आधा है 
तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती 

जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं 
कोरे मन पर महज़ लकीरें हैं 
लिख लिख मिटाती रहती हो 
एक बार पढ़ क्यूँ नहीं लेती

उलझी सोचों के डोरे हैं 
ये किस चाल के मोहरे हैं 
ये जंग ए किरदार है तो फिर 
ये एलान कर  क्यूँ नहीं देती 

 आईने सिर्फ आईने  हैं 
ये नजरिया सिर्फ दिखाते हैं 
तुम अपने मुताबिक अक्स अपना 
गढ़ क्यूँ नहीं लेती 


बिखर रहा है आखों में 
उम्मीदों का टूटा हार 
मोती ये अनमोल है तो 
अंजुरी भर क्यूँ नहीं लेती 

किसका कितना हिस्सा तुझमे 
किसकी भागीदारी कितनी 
यूँ रिश्तों में बंटने से पहले 
खुद में अपना भी एक हिस्सा 
कर क्यूँ नहीं लेती 

~ वंदना 





Wednesday, January 10, 2018

खुद को छोड़ आए कहाँ, कहाँ तलाश करते हैं, 
रह रह के हम अपना ही पता याद करते हैं|

खामोश सदाओं में घिरी है परछाई अपनी 
भीड़ में  फैली इस तन्हाई से मगर डरते हैं| 

लहरों से कहाँ होगी मालूम ये  गहराई 
डूबने का डर छोड़ो तो नदी में उतरते हैं|


अना,बेबशी, गुरूर, खुद्दारी ,इन सबके बीच 
कितना मुश्किल है कहना कि तुझपे मरते हैं| 



~ वंदना

Tuesday, January 9, 2018



एहसासो के फटे पहरन पर रफू चाहता है
दिल का अँधेरा  चिराग़ ए आरज़ू चाहता है

तमन्ना तार तार है, दुआ का लिबाज़ मैला
किसी इबादत से पहले दिल वज़ू चाहता है

~ वंदना 

Thursday, February 16, 2017

गीत


नयन हँसें और दर्पण रोए 
देख सखी वीराने में 
पागलपन अब हार गया
खुद को कुछ समझाने में 
--

काली घटायें 
घुट घुट जाएँ 
खारे पानी 
नयन समाएं। 
मन में मुंडेर पे 
बैठ परिंदा 
विरह के नित 
गीत सुनाए। 
इसके हवा ने पंख कुतर लिए 
ये टूटा नही... गिर जाने में 


नयन हँसें और दर्पण रोये 
देख सखी वीराने में 

--

कैसे है ये 
रोग वे माए 
रो -रो रतियाँ 
नयन गंवाए।
जुड़के न टूटे 
डोर ये मन की 
साँसों विच कोई 
अलक जगाये। 

मन बैरागी ,भेद न समझे 
जीने, और... मर जाने में। 

नयन हँसें और दर्पण रोये 
देख सखी वीराने में
पागलपन अब हार गया 
खुद को कुछ समझाने में। 






Thursday, November 17, 2016

दरगाह




वह जो तेरे मेरे बीच था 
न पूरा पूरा इश्क था 
न कोई अधूरी  मोहब्बत । 

कुछ अनकहे और अनसुने 
लफ़्ज़ों की दरगाह थी 

जिस पर दिल कभी 
सर पटक पटक कर  रो लेता था 
तो  कभी ऐसे किसी खुदा को नकारते हुए 
उसे झुठला भी देता था । 

ख़ामोशी की उसी दरगाह पर 
मैंने तुम्हारे नाम
 ऐसे कई प्रेमपत्र चढ़ाएं है 
जिन पर किसी को तुम्हारा नाम 
ढूंढने पर भी न मिले शायद 

लेकिन तुम्हे तुम्हारा पूरा -पूरा  वजूद 
नाम ,पता और अक्स  समेत 
उसकी हर इबारत में महसूस होगा । 

वंदना 

Thursday, July 14, 2016

नज़्म

वो अक्सर कह देती थी
अपनी बातों में कुछ अनकहा भी
और मैं अनसुना करते हुए
सब सुन भी लेता था

मगर एक दिन मेरे हिस्से का शोर
मुझे सौंप कर
वो  चुप हो गई
तब से उसकी चींखों का भी
मुझसे राब्ता हो गया है

वो उड़ेल देती थी शब्दों में खुद को पूरा पूरा
और मैं एक आधी अधूरी प्यास लिए
तृप्ति की परिभाषाएँ तय करता रहता था

उसकी मोहब्बत घुटनो के बल रेंगते हुए
घोट देती थी अक्सर गला मेरी अना का
और मैं बार- बार खुद में ही  मर जाता था

मैं दर्ज़ हूँ ताबूत में बंद
किसी किताब में और
दुनिया की उड़ती खबरों में
अपना होना तलाश रहा हूँ

~ वंदना
७/१४/२०१६

Thursday, July 7, 2016

ग़ज़ल




पहले पहल ही दिल दुखता है जब चीज़ कोई खो जाती है
फिर हमको खोते  रहने की,  इक आदत सी हो जाती है

पानी में फेंका न करो  अपनी किसी इबादत को
 पहले सिक्के खोते हैं, और, फिर दुआ खो जाती है

कितनी देर ठहर सकेगी पलकों पर ये  पीर पुरानी
आँखों को मलते ही दिल में ,टीस नयी उग आती है

अपनी समझ पतवार ए जिंदगी, हम गुमाँ में रहते हैं
है जाना हमको वहीं जहाँ, ये लहर  हमें ले जाती है

कौन सुने साँसों की सरगम, दिल की ताल पहचाने कौन
कदम ताल का नाम जिंदगी , सो ये चलती जाती है



~ वंदना











तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...