गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Sunday, February 12, 2012
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...

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इन सिसकियों को कभी आवाज मत देना दिल के दर्द को तुम परवाज मत देना यहाँ अंदाज ए नजर न तुझे तेरी ही नजर में गाड़ दे भूलकर भी किसी को ...
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बंद दरिचो से गुजरकर वो हवा नहीं आती उन गलियों से अब कोई सदा नहीं आती .. बादलो से अपनी बहुत बनती है, शायद इसी जलन...
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वफायें ..जफ़ाएं तय होती है इश्क में सजाएं तय होती हैं पाना खोना हैं जीवन के पहलू खुदा की रजाएं.. तय होती हैं ये माना... के गुन...
बहुत ही अच्छी......
ReplyDeleteजितना बढ़ा आकार नदी का
ReplyDeleteउतना , किनारे कटते गये
बहुत खूब ... अच्छी प्रस्तुति
shuru ki char panktiyan bahut bhaeen ...
ReplyDeleteबेहतरीन गीत...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 16-02-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज...हम भी गुजरे जमाने हुये .
जितना बढ़ा आकार नदी का ... किनारे कटते गए , बहुत ही गहरे भाव
ReplyDeletesimit path pade jeevan ke, very nice lines.
ReplyDeleteअतिसुन्दर
ReplyDeleteजितना बढ़ा आकार नदी का
ReplyDeleteउतना, किनारे कटते गए..
बहुत सुन्दर...
lazabab likha hai.....
ReplyDeleteबेहतरीन सुंदर गीत,..बहुत अच्छी प्रस्तुति,...बधाई
ReplyDeleteMY NEW POST ...कामयाबी...
बहुत बढ़िया रचना.... वाह!
ReplyDeleteसादर.
waah....bahut achcha.
ReplyDeleteसुन्दर कविता... बधाई !
ReplyDeleteबेहतर रचनात्मक प्रस्तुति .....!
ReplyDeleteबेहतर रचनात्मक प्रस्तुति .....!
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