मुट्ठी से यूं हर लम्हा छूटता है
साख से जैसे कोई पत्ता टूटता है
हवाओं के हक़ में ही गवाही देगा
ये शज़र जो ज़रा ज़रा टूटता है
कुछ हैराँ -परेशां सा एक कबूतर
गुज़रे मौसमों के निशां ढूंढता है
लोग किस ज़माने की सुनते हैं
जमाना आखिर किसे पूछता है ?
मिटटी या कुम्हार, दोष किसे दें
पानी में गिरते ही घड़ा फूटता है
अपने सर पे कई इलज़ाम लेकर
इस दौर में बस आईना टूटता है
कोई मनाए देकर दोस्ती का वास्ता
इस उम्मीद में अब कौन रूठता है
वक्त लगता है दिल के बहल जाने में
रफ्ता रफ्ता उम्मीद का दामन छूटता है
वंदना
वक्त लगता है दिल के बहल जाने में
रफ्ता रफ्ता उम्मीद का दामन छूटता है
वंदना
लोग किस ज़माने की सुनते हैं
ReplyDeleteजमाना आखिर किसे पूछता है ..
वाह ... बहुत ही कमाल का शेर ... हकीकत की बयानी है ...
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.11.2014) को "इंसान का विश्वास " (चर्चा अंक-1804)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteWah didi bahot khub
ReplyDeleteमिटटी या कुम्हार, दोष किसे दें
पानी में गिरते ही घड़ा फूटता है
बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
ReplyDeleteआग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
शब्दों की मुस्कुराहट पर ...दूर दूर तक अपनी दृष्टि दौड़ाती सुनहरी धुप
वाह ! बहुत खुबसूरत ग़ज़ल !
ReplyDeleteआईना !
shukriya
DeleteBahut shukriyaa
ReplyDeleteBahut bahut shukriyaa aap sabhi ka .:)
ReplyDeleteकोई मनाए देकर रफ़ाक़त का वास्ता
ReplyDeleteइस तवक्को में अब कौन रूठता है।
bahut umda