चेहरा धुंधलाने लगा तो आइना टूटा
हर मुसाफिर अपने लिए चल रहा था
किसको मालूम कब वो काफिला टूटा
परिंदे उड़ गये थे कर के वीरान इसे
अपनी मर्जी से नही ये घोंसला टूटा
गिरकर संभलना चींटी का स्वभाव था
दीवार ही गिरने लगी तो होंसला टूटा
सबके ही काँधे पे अना का बोझ था
जब मगर थकने लगे तो कारवाँ टूटा
~ वंदना
10/18/14
बेहतरीन रचना उतने ही खूबसूरत भाव.
ReplyDeleteBahut bahut shukriya :)
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (14-11-2014) को "भटकता अविराम जीवन" {चर्चा - 17976} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
बालदिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Bahut bahut Dhanyavaad aapka .
DeleteSunder abhivyakti
ReplyDeleteShukriya :)
Deleteहर मुसाफिर अपने लिए चल रहा था
ReplyDeleteकिसको मालूम कब वो काफिला टूटा ..
लाजवाब ... गज़ब का शेर है ... पूरी ग़ज़ल बहुत उम्दा ...
Bahut bahut abhaar :)
Deletevandna ji aapki kalam ko jyada padhne ke liye apki pustak फिरता है मन तारा तारा khan se uplabdh hogi hume
ReplyDeleteSanjay ji ..Aap apna pata mujhe inbox kar dijiye. main aapko bhej doongi. Bharat me uplabh nhi karayi gyi hai abhi ..na hi online hai .
Deleteemail - singh.vandana498@gmail.com