जब सुअम से अनजान थी तो समझदार कहलाती थी , खुद की परख ने हमें पागल बनाया है
जिन्दगी तो हंसकर जलाती रही , तजुरबो ने अब चलना सिखाया है
ऐ आस्मां इन बदलियों से कहदे .. मेरी अटरिया से होकर न गुजरे
समंदर की लहरों से अब मैंने रिश्ता बनाया है
मिटाकर खुद को कागज की कश्ती की तरह
मैंने खुद को दुआ की तरह पाया है..
गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
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खुद को छोड़ आए कहाँ, कहाँ तलाश करते हैं, रह रह के हम अपना ही पता याद करते हैं| खामोश सदाओं में घिरी है परछाई अपनी भीड़ में फैली...
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तजुरबो ने अब चलना सिखाया है,
ReplyDeleteमैंने खुद को दुआ की तरह पाया है.
padh kar accha laga vandana!