Thursday, May 21, 2009

दो नयना

वो सागर से दो नयना ....
किसी चंचल हिरन की तरेह ......कस्तूरी को ढूंढते ,
जो लागे है बड़ी प्यारी मगर समझ में नही आती ....
मुझे दो परिंदों की जैसे वो गुफ्तगू सी नजर आयी ,
उन नैनो में बेचैनिया थी
या कोई अधूरा सा सकून था
एक सांचा आईना थे वो
या मेरी आँखों का जूनून था
मैं अनपढ़ कवाल कोई ......और वो
गजल की जैसे एक किताब नजर आयी

2 comments:

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...