कुछ सदाएं यूंही भटकती
मुझ तक जब आ जाती है
बिन आहट बिन दस्तक जैसे
कोई संदेसा दे जाती है
कुछ कहने कुछ सुनने को जब
ख़ामोशी खुद रास्ता बन जाती है
वही पुराने राग जब धड़कने
बैचेनियों में गुनगुनाती है
कमजोर पलों कि इस शरगोशी को
मैं थपकियों से बहलाती हूँ
सुलझाती हूँ ये भ्रम जाल सुनहरे
खुद को भी ये समझाती हूँ
नहीं बरसती ..इन बरसातों में
अब मेरे हिस्से कि वो चंद बूंदे !
- वंदना
दुःख की घड़ियाँ गिन रहे, घडी-घडी सरकाय ।
ReplyDeleteधीरज हिम्मत बुद्धि से, जाएगा विसराय ।
जाएगा विसराय, लगें फिर सर में गोते ।
लो मन को बहलाय, धीर सज्जन न खोते ।
समय का शाश्वत चक्र, घूम लाये दिन बढ़िया ।
होना मत कमजोर, गिनों कुछ दुःख की घड़ियाँ ।।
नहीं बरसाती इन बरसातों में अबमेरे हिस्से की चंद बूंदे...
ReplyDeleteवाह
कभी तो बरसेंगी ही ..
ReplyDeleteबढिया प्रसतुति !!
बहुत खुबसूरत भाव..
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
ReplyDeleteइस उत्कृष्ट रचना के लिए ... बधाई स्वीकारें.
नीरज
नही बरसती अब इन बरसातों मैं मेरे हिस्से की कुछ चंद बुँदे...
ReplyDeleteबहुत ही प्यारी भावो को संजोये रचना......
भावप्रवण प्रस्तुति ... उम्मीद रखिए ... कभी न कभी बरसेंगी
ReplyDeleteकलात्मक रचना मनभावन व प्रभावशाली है बधाईयाँ जी /
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना....
ReplyDeleteसुन्दर भाव अभिव्यक्ति :-)
बहुत ही सुन्दर रचना....
ReplyDeleteसुन्दर भाव अभिव्यक्ति :-)