Friday, September 9, 2011

ग़ज़ल ..!





माना जीने के सलीके हमको आते नही हैं   
मगर तजुर्बे जिंदगी के क्या सिखाते नही हैं 

जिंदगी हमको कबूल हुए ये इल्जाम सारे 
मगर हम गलतियां कभी दोहराते नही हैं 

ये चखोर मिज़ाजी का हुनर हमें भी दीजिये 
हमसे तो दिल के पहरन बदले जाते नहीं हैं 

इन साखों पर  ये  बसेरा   रोज़ लगता है 
कुछ परिंदे थे जो  अब नजर आते नहीं हैं 

तुम कैसे यारों  पत्थर को खुदा मान लेते हो 
लोग इंसानों  से भी रिश्ता निभाते नहीं हैं 

पढ़े न जा सकें   ये बात और है  ए दोस्त 
सफ़हे किताब ए जिंदगी से निकाले जाते नही हैं 

- वंदना 

10 comments:

  1. हमसे भी दिल के पहरन नहीं बदले जाते...

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  2. गहन अनुभूति लिए सुन्दर रचना.....

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  3. बहुटी लाजवाब गज़ल ... हा शेर पर वाह वाह निकलती है ...

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  4. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  5. बेहतरीन ग़ज़ल , एक एक शेर उम्दा बधाई

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  6. माना जीने के सलीके हमको आते नहीं.
    मगर तजुर्बे जिन्दगी के क्या सिखाते नहीं.

    बहुत उम्दा.... खुबसूरत ग़ज़ल...
    सादर....

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  7. safhe kitaabe jindagi se nikaale jate nahi hain ...ye sabse khoobsoorat sher..

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  8. हर शेर ज़िंदगी का एक फल्सफा है.बेहद खूबसूरत गज़ल.

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...