माना जीने के सलीके हमको आते नही हैं
मगर तजुर्बे जिंदगी के क्या सिखाते नही हैं
जिंदगी हमको कबूल हुए ये इल्जाम सारे
मगर हम गलतियां कभी दोहराते नही हैं
ये चखोर मिज़ाजी का हुनर हमें भी दीजिये
हमसे तो दिल के पहरन बदले जाते नहीं हैं
इन साखों पर ये बसेरा रोज़ लगता है
कुछ परिंदे थे जो अब नजर आते नहीं हैं
तुम कैसे यारों पत्थर को खुदा मान लेते हो
लोग इंसानों से भी रिश्ता निभाते नहीं हैं
पढ़े न जा सकें ये बात और है ए दोस्त
सफ़हे किताब ए जिंदगी से निकाले जाते नही हैं
- वंदना
हमसे भी दिल के पहरन नहीं बदले जाते...
ReplyDeleteगहन अनुभूति लिए सुन्दर रचना.....
ReplyDeleteबहुटी लाजवाब गज़ल ... हा शेर पर वाह वाह निकलती है ...
ReplyDeleteBehtariin...waah
ReplyDeleteNeeraj
naye shabd pryogo se bhari umda gazel.
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बेहतरीन ग़ज़ल , एक एक शेर उम्दा बधाई
ReplyDeleteमाना जीने के सलीके हमको आते नहीं.
ReplyDeleteमगर तजुर्बे जिन्दगी के क्या सिखाते नहीं.
बहुत उम्दा.... खुबसूरत ग़ज़ल...
सादर....
safhe kitaabe jindagi se nikaale jate nahi hain ...ye sabse khoobsoorat sher..
ReplyDeleteहर शेर ज़िंदगी का एक फल्सफा है.बेहद खूबसूरत गज़ल.
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