Wednesday, March 30, 2011





क्या जाने क्यूं इस तरह मूह मोड़ने लगा कोई 
जैसे बिलखते बच्चे को अकेला छोड़ने लगा कोई 

खुद को बहलाने कि वो अपनी तमाम कोशिशे 
जैसे टूटे हुए एक खिलौने को जोड़ने लगा कोई 

वो हर जज़्बात जिसकी जड़े रगों तक फैली हैं 
जैसे रूह से एक एक  सब किरोदने लगा कोई

हंसी चेहरे पे गुलाब सी  मानो उधार थी उसका 
उस फूल कि  हर पंखुड़ी अब नोचने लगा कोई 
   
जिंदगी से ऐसा भी ... कोई  वादा तो नहीं था 
फिर भी जीने के लिए कफ़न ओढने लगा कोई 



7 comments:

  1. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

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  2. हंसी चेहरे पे ग़ुलाब सी मानो उधार थी उसकी
    उस फूल की हर पंखुड़ी नोचने लगा कोई.
    हर पंक्ति लाज़वाब ......अनुभूतियों की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति.

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  3. बढ़िया मखमली गजल!
    एक-एक शब्द आपने चुन-चुन कर रखा है इसमें!

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  4. सुन्दर रचना... बधाई

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  5. बहुत उम्दा.
    बहुत ही उम्दा.
    दिल को छू रही है.

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...