Thursday, October 28, 2010

ख्वाहिशे किसी की बंद किताब का फूल हुई



टूटते तारो कि कुछ तो हर्जी वसूल हुई 
चलो अपनी भी कोई तो दुआ कबूल हुई 

उसूलो के खम्बो से बंधी है उडारी मेरी 
जिंदगी जैसे किसी आँगन  की झूल हुई  

हम ये इल्जाम लेकर जियेंगे जाने कैसे 
जिंदगी भर ना भूलेंगे हमसे जो भूल हुई 

इस गुजरे वक्त से तो भला कौन डरता है .
मगर कल यही बंद कालिया जो ..शूल हुई

इतना भी खुद से भला बिगड़ना किस लिए 
इंसानों से ही हुई ..जब भी कोई भूल हुई 

ड़ाल पर रहता तो बिखरता जरूर ,अच्छा हुआ 
ख्वाहिशे किसी  की बंद किताब का फूल हुई 

-वंदना 

8 comments:

  1. इंसानों से ही हुई .. जब भी कोई भूल हुई
    भूल स्वाभाविक है
    सुन्दर रचना

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  2. उसूलों के खंबों से बंधी हुई है उडारी मेरी ...खूबसूरत

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  3. जिंदगी भी साहिबा, चीज़ है कुछ यूँ ,
    कभी आई समझ में , कभी उलजहूल हुई ...

    बहरहाल आपकी शायरी तो समझ में आ ही गयी हमें, लिखते रहिये ...

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  4. बहुत सुंदर गज़ल...हर शेर पसंद आया.

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  5. ख्वाहिशें...किसी की बंद किताब का फूल हुईं...
    कमाल की लाइन है....(कहीं इस्तेमाल कर लूँ, कहानियों में तो प्लीज़ चोरी का इलज़ाम ना लगिएगा...:) )
    इत्तला कर दी है....इजाज़त नहीं मांग रही...रेफरेंस देना भूल जाऊं तो माफ़ कर दीजियेगा...
    पूरी ग़ज़ल ही कमाल की है...बहुत ख़ूबसूरत

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  7. वाह ! बहुत खूब
    अच्छा हुआ.....ख्वाहिशें किसी की बंद किताब की फूल हुई
    आज भी खुशबू शायद बरक़रार होगी

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...