टूटते तारो कि कुछ तो हर्जी वसूल हुई
चलो अपनी भी कोई तो दुआ कबूल हुई
उसूलो के खम्बो से बंधी है उडारी मेरी
जिंदगी जैसे किसी आँगन की झूल हुई
हम ये इल्जाम लेकर जियेंगे जाने कैसे
जिंदगी भर ना भूलेंगे हमसे जो भूल हुई
इस गुजरे वक्त से तो भला कौन डरता है .
मगर कल यही बंद कालिया जो ..शूल हुई
इतना भी खुद से भला बिगड़ना किस लिए
इंसानों से ही हुई ..जब भी कोई भूल हुई
ड़ाल पर रहता तो बिखरता जरूर ,अच्छा हुआ
ख्वाहिशे किसी की बंद किताब का फूल हुई
-वंदना
इंसानों से ही हुई .. जब भी कोई भूल हुई
ReplyDeleteभूल स्वाभाविक है
सुन्दर रचना
उसूलों के खंबों से बंधी हुई है उडारी मेरी ...खूबसूरत
ReplyDeleteजिंदगी भी साहिबा, चीज़ है कुछ यूँ ,
ReplyDeleteकभी आई समझ में , कभी उलजहूल हुई ...
बहरहाल आपकी शायरी तो समझ में आ ही गयी हमें, लिखते रहिये ...
बहुत खूबसूरत गज़ल ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर गज़ल...हर शेर पसंद आया.
ReplyDeleteख्वाहिशें...किसी की बंद किताब का फूल हुईं...
ReplyDeleteकमाल की लाइन है....(कहीं इस्तेमाल कर लूँ, कहानियों में तो प्लीज़ चोरी का इलज़ाम ना लगिएगा...:) )
इत्तला कर दी है....इजाज़त नहीं मांग रही...रेफरेंस देना भूल जाऊं तो माफ़ कर दीजियेगा...
पूरी ग़ज़ल ही कमाल की है...बहुत ख़ूबसूरत
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteवाह ! बहुत खूब
ReplyDeleteअच्छा हुआ.....ख्वाहिशें किसी की बंद किताब की फूल हुई
आज भी खुशबू शायद बरक़रार होगी