शहर ,गाँव सी जिंदगी
है धूप छाँव सी जिंदगी !
पथरीली राहों पर जैसे
है नंगे पाँव सी जिंदगी !
मजधारों में गोते खाए
है एक नाव सी जिंदगी !
मक्खी बनकर वक्त कुरेदे
है खुले घाव सी जिंदगी !
खुद से हारे खुद को जीते
है एक दाव सी जिंदगी !
मरते दम मोह ना जाये
है बुरे चाव सी जिंदगी !
बेमोल ही कोई लाद चले
है टके भाव सी जिंदगी!!
वंदना
ज़िंदगी की इतनी विस्तृत विवेचना
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक रचना!
ReplyDelete--
सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी पोस्ट को बुधवार के
चर्चा मंच पर लगा दिया है!
http://charchamanch.blogspot.com/
शहर ,गाँव सी जिंदगी
ReplyDeleteहै धूप छाँव सी जिंदगी !
पथरीली राहों पर जैसे
है नंगे पाँव सी जिंदगी !
अच्छा...बहुत अच्छा कलाम है आपका.
बेमोल ही कोई लाद चले
ReplyDeleteहै टके भाव सी जिंदगी!!
hmmmn...very true...nice creation :)
वाह....
ReplyDeleteसुन्दर यथार्थबोध ...बहुत ही सुन्दर रचना..
सचमुच ऐसी ही तो होती है जिन्दगी.
sundar rachna!
ReplyDeleteबहुत कुछ समझा दिया ज़िंदगी के बारे में ...अच्छी प्रस्तुति
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