आज सांझ सूरज...
कुछ अलसाया हुआ सा,
शफक पर
ठहरा रहा कुछ देर ..
जैसे .. रात का अभी
कुछ श्रंगार बाकी था !!
गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
पूरब से उगता है जो, और पश्चिम में छिप जाता है!
ReplyDeleteवह प्रकाश का पुंज, हमारा सूरज कहलाता है!
वन्दना जी .
ReplyDeleteरचना संवेदनाओं की सरस अभिव्यक्ति है ।
प्रशंसनीय ।
बेहद प्रभावी रचना !!
ReplyDeleteहमज़बान यानी समय के सच का साझीदार
पर ज़रूर पढ़ें:
काशी दिखाई दे कभी काबा दिखाई दे
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html
bahut hi umdaah rachna....
ReplyDeleteअलसाया सूरज ...बहुत सुन्दर
ReplyDeletevaah.............behad khoob bhaav bhara hai.
ReplyDeleteraat ka sringaar usko jaldi dhalne pe majboor nahi kar dega kyaa??..not being able to exactly gather the meaning of the line...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteअद्भुत!
ReplyDelete@ all ...bahut bahut shukriyaa aap sabhi ka yahan tak aane or sarahne ke liye ..aate rahiyega ....thnks:)
ReplyDelete@ sajal ji ....sooraj tab jayega shafak se jab raat aayegi ..or raat bina poora srangaar kiye nahi aa rahi ..kuch der or thahar kar raat ki raah tak rha tha :D:D:D
ReplyDeleteबाकमाल लिखा है आपने ........ इसी तरह आपकी सोच को परवाज़ मिलता रहे.
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