संगत कवियों की मिल गयी मुझे..... .,
मानो झूठ की इस जागीर में सच्चाई के नजराने मिल गए
मेरी गुमनाम राहों को सफ़र सुहाने मिल गए
खुद को कवि कहूं ,इतनी तो ओकात नहीं मेरी
बस खुद से बतियाने के मुझे अब बहाने मिल गए ....
गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Saturday, May 2, 2009
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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खुद को छोड़ आए कहाँ, कहाँ तलाश करते हैं, रह रह के हम अपना ही पता याद करते हैं| खामोश सदाओं में घिरी है परछाई अपनी भीड़ में फैली...
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बरसों के बाद यूं देखकर मुझे तुमको हैरानी तो बहुत होगी एक लम्हा ठहरकर तुम सोचने लगोगे ... जवाब में कुछ लिखते हुए...
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लाख चाह कर भी पुकारा जाता नही है वो नाम अब लबों पर आता नही है इसे खुदगर्जी कहें या बेबसी का नाम दें चाहते हैं पर...
बस खुद से बतियाने के मुझे अब बहाने मिल गए
ReplyDeletewah wah! ye bahane bahut khoobsurat hain... batiyati raho..... aur uhi muskurati raho :-)