Monday, November 23, 2015

त्रिवेनियाँ




हाँ मैंने  तुम्हे पीछे से आवाज़ दी थी 
ये जानते हुए भी की तुम नही रुकोगे 

मुझे सिर्फ तुम्हारा लौटना आसान करना था !

***

अगर  जिंदगी  फिर  कभी ऐसे दोराहे पर लाये 
जहाँ तुम्हे कोई लाख चाहकर न पुकार पाये 

तो समझना तुम अपने ही सन्नाटें में खो चुके हो !


***

जब रात चांदनी की आगोश में दम तोड़ चुकी होगी 
जब चाँद को गहराते हुए सन्नाटें फाँक चुके होगे 

तुम अपनी खिड़की पर मुझे जागता पाओगे !

***

जब हर टूटन तुम्हारे बदन से रिस चुकी हो
जब पीर का पखेरू कफ़स तोड़  कर जा चुका हो

खुद को एक बार फिर जिन्दा घोषित कर देना !

***


 दिलों के कच्चे यकीन  की छत टपक रही थी 
पलकों के शामियाने में इंतज़ार भीग रहा था 

इश्क का वजूद गल कर गारा हो गया 

***


लड़की के पास चंद सीपियाँ थी  साहिल के रेत से चुनी हुईं
लड़के को उनमे एक भी मोती नही मिला तो लौट गया 

लड़की ने अपनी चाहना सीपियों के साथ रेत  में दफना दी! 




~ वंदना 





1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-11-2015) को "अपने घर भी रोटी है, बे-शक रूखी-सूखी है" (चर्चा-अंक 2171) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    कार्तिक पूर्णिमा, गंगास्नान, गुरू नानर जयन्ती की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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