नीचे जमीं है
ऊपर आसमां
लगता है जैसे
मैं इन दोनों के
बीच कहीं नही हूँ
मैं हूँ तो कहाँ
हूँ
किस जगह की हूँ
किसके लिए हूँ
अगर कुछ है
इस छण, तो
सिर्फ एक डर है
खुद को खो देने का डर
इस आसमां में जहाँ
मेरे मौन के सन्नाटों
सी
एक वीरानी है
या उस जमीं में जहाँ
मेरे ज़हन की बेचैनियों
के
शोर सा कोलाहल है
मैं ठहरना चाहती हूँ
इन दोनों के बीच
कहीं
कोई केंद्र तो होगा
मेरे दिल के किसी
कोने सा खाली
मैं ठहर जाना चाहती
हूँ
एक ऐसी जगह पर जहाँ
हवाएं भी मुझसे ला-ताल्लुक
सी हो !
जहाँ मुझसे मेरे
होने की
गवाही न तलब की जाए
!
जहाँ मेरी नींदों
को
सपनो से न तोला जाएँ!
जहाँ हसरते न लाचार
हों
जहाँ जिंदगी कोई
तिजारत न जानती हो
जहाँ सब कुछ ऐसा ही
हो
जैसा दिखाई पड़े
जहाँ कोई सपना
आखों में तैरता न
हो
जहाँ कोई भी आहत
दिल को बेचैन न
करती हो
जहाँ कोई उम्मीद आखों
में
पानी बनकर न ठहरे
जहाँ सोच के धागे
कुछ भी न बुनना
जानते हों
बस मैं ठहरजाना
चाहती हूँ
अपने हिस्से की
जमीं में
अपने आसमान के नीचे
!
~ वंदना
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