अपने अंतर्मन के
इसी सन्नाटे से
डरती रही मैं आजकल
अच्छा लग रहा है
मगर अब
अपने भीतर का ये शून्य
मैं ठहर पा रही हूँ
जिंदगी के मंच के
खुरदुरे धरातल पर
अपनी एड़ियों की पकड़
मजबूत लगने लगी है
खुद को समझाना इतना
मुश्किल नही था शायद
बस वक्त लग गया
ख़्वाब और हकीकत का
फर्क समझने में
सुलझ गयीं हैं
मन की फांस
सुलझ गयीं हैं
मन की फांस
मगर फिर भी है
कुछ अनसुलझा सा
इस दरमियाँ
जिसे सुलझा मैं पाती नही
और उलझना मैं चाहती नही !
~ वंदना
आपकी लिखी रचना शुक्रवार 13 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
कितना अच्छा है यूँ खुद को समझा पाना...
ReplyDeleteसुन्दर भाव..
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (13-06-2014) को "थोड़ी तो रौनक़ आए" (चर्चा मंच-1642) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (13-06-2014) को "थोड़ी तो रौनक़ आए" (चर्चा मंच-1642) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
bahut sundar
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