Sunday, March 30, 2014

पागल



वो अल्हड़ता 
वो बेपरवाही 
वो अपने हक़ में 
जी लेने कि चाहत 

उसे आवारा करार 
दे गयी 
जो  न हो सका गंवारा 
उसके पिंजर गढ़ने वालो को 

एक लक्ष्मण रेखा को 
उसकी मांग में खींचा गया 
उसको ख़ुशी ख़ुशी कबूल हुए 
उसकी हदें तय करते दायरे 


न कबूल हो सका मगर 
खुदा को ,क्योकि 
हाथो कि लकीरों में 
दुखों के कर्ज बाकी थे  

दहाड़े मार के चीखीं 
वो अपने हिस्से के 
पत्थरो पर कांच कि 
चूड़ियाँ तोड़ते हुए 

अब उसके पास 
न चीखें बची है न शोर 
न बेड़िया हैं  ,न रेखाएं 

साँसों कि किश्तें 
भरते रहने के लिए 
उसका पागल हो जाना ही जरूरी था !


- वंदना 





7 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (01-03-2014) को "'बोलते शब्द'' (चर्चा मंच-1568) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    नवसम्वतसर २०७१ की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (31-03-2014) को "'बोलते शब्द'' (चर्चा मंच-1568) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    नवसम्वतसर २०७१ की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. एक लक्ष्मण रेखा को
    उसकी मांग में खींचा गया
    उसको ख़ुशी ख़ुशी कबूल हुए
    उसकी हदें तय करते दायरे ..
    बहुत गहरी संवेदना लिए पूरी रचना ... आज के समाज में शायद उनका पागल हो जाना जीएवन को आसान कर दे ...

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!

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  5. कोशिश करें कि अब से एक हँसता-खेलता सरल जीवन केवल कुछ रूढ़ियों के कारण पागल न हो .

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  6. सुन्दर ! :)

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  7. Gazab,,,bahut hi badhiiya vandu..

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