मत चींखो मत लड़ो
दामिनी यहाँ ओरत होना सस्ता है
अन्धो कि चोपट नगरी
में इन्साफ नही हो सकता है
तुम मर गयीं, मरती रहोगी, हर गली चौराहे पर
यह देश इस मातम को रोज़ रोज़ कर सकता है
तुम मर गयीं, मरती रहोगी, हर गली चौराहे पर
कौन देखे धब्बे
अस्मिता के कानून जहाँ का अंधा है
जुर्म से कैसे लड़
पायेगा वो तो लाचार निहत्ता है
खिश्याया सा पूरा
देश ,देखो खुद पर हँसता है
यहाँ आसाराम जैसा
भी "धर्म गुरु " हो सकता है
तुमको क्या मालूम
कलयुग के धृतराष्ट्रों कि लाचारी
इस जुर्म को लेकर
कैसे कोई महाभारत हो सकता है
बिगुल बजाकर हम तो
देखेंगे कैसे आँचल जलता है
तुम्हारे श्राप से
कौन दामिनी यहाँ कैसे कैसे गलता है
- वंदना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज सोमवार (02-09-2013) को प्रभु से गुज़ारिश : चर्चामंच 1356 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन उदबोधक उम्दा प्रस्तुती,आभार।
ReplyDeleteआज सच ही ऐसे हालात हैं ।
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुती,आभार।
ReplyDeleteकृपया यहाँ भी पधारें और अपने विचार रखे
, मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11
आपकी कमाल की पोस्ट का एक छोटा सा कतरा हमने सहेज़ लिया ब्लॉग बुलेटिन के इस पन्ने को सज़ाने और दोस्तों तक आपकी पोस्ट को पहुंचाने के लिए , आइए मिलिए अपनी और अपनों की पोस्टों से , आज के बुलेटिन पर
ReplyDeleteआज के हालातो को बखूबी बयां करती हुई रचना वंदना जी । सही जगह चोट करती हुई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.. मैं कहूँगा मत चीखो लड़ मरो दामिनी और दामिनी ही क्यों हर कोई जिस पर जुल्म हो नर हो या नारी हो लड़ना ही चाहिए . अगर कश्मीर में पंडित लड़ते तो उन्हें घर छोड़ना नहीं पड़ता .. जुल्म तो हर जगह है उसका एक मात्र निदान लड़ना है ..
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