Wednesday, August 21, 2013

इश्क मुझे मुकम्मल चाहिए था





 मौन के विस्तार में 
सिमटी रफाकत कि तहरीरे 

सच्ची तस्वीरों के 
झूठे भेद 

जज्बातों की 
 कच्ची बुनियाद में धँसे हुए 
सपनो के शीशमहल 

दिल की बेजुबानियों में 
कैद ये  सरगम 

आँखों की कोर से 
नाउम्मीद ताकते अहसास 

मुझमे पल पल 
जीती मरती 
यादों के बवंडर 


इश्क की  परिभाषा मांगते हैं

और मैं हँस  देती हूँ 
सिर्फ यही सोचकर 
इश्क मुझे मुकम्मल चाहिए था 




-वंदना 











4 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज वृहस्पतिवार (22-06-2013) के "संक्षिप्त चर्चा - श्राप काव्य चोरों को" (चर्चा मंचः अंक-1345)
    पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह...
    बहुत सुन्दर एहसास...

    अनु

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  3. वाह ...बहुत खूब

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...