मौन के विस्तार में
सिमटी रफाकत कि तहरीरे
सच्ची तस्वीरों के
झूठे भेद
जज्बातों की
कच्ची बुनियाद में धँसे हुए
सपनो के शीशमहल
दिल की बेजुबानियों में
कैद ये सरगम
आँखों की कोर से
नाउम्मीद ताकते अहसास
मुझमे पल पल
जीती मरती
यादों के बवंडर
इश्क की परिभाषा मांगते हैं
और मैं हँस देती हूँ
सिर्फ यही सोचकर
इश्क मुझे मुकम्मल चाहिए था
-वंदना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज वृहस्पतिवार (22-06-2013) के "संक्षिप्त चर्चा - श्राप काव्य चोरों को" (चर्चा मंचः अंक-1345)
पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एहसास...
अनु
Beautiful...
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब
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