Monday, April 22, 2013

नज्म

  
पुकारा था
 तुम्हे एक रोज़
 अजीब बेबस से 
सन्नाटों में 

मुझ से ही उठकर 
एक गूँज 
मेरे ही अहम् से 
टकराकर 
बेहद शोर करती हुई 
मुझमे ही आकर 
छन से गिरी थी 

तब से कुछ नही है 
जिंदगी में सिर्फ 
एक शोर के सिवा 

तुम्हारी आवाज़ का स्पर्श 
मेरे खामोश अफ़साने 
बहुत कुछ सुनती
 रहती हूँ मैं 

यूँ ही कान दबाये !


- वंदना 


3 comments:

  1. बहुत भा्वपूर्ण प्रस्तुति..

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  2. कई शोर गूंजते रहते हैं उम्र भर ... किसी मुकाम तक नहीं पहुँच पाते ... पी लीना चाहिए ऐसे शोर को ...
    अर्थपूर्ण रचना ...

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  3. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार.

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