Wednesday, March 27, 2013

हम खुद से बाहर कहाँ तक जायेंगे



थक जायेंगे तो यहीं लौटकर आयेंगे 
हम खुद से बाहर कहाँ तक जायेंगे 

झंझोड़ कर जगा दे इस खाब से कोई 
वरना उम्मीदों के पर निकल आयेंगे 

कोई तस्लीम* बाकी हो दरमियाँ अपने 
इतना अगर घुटेंगे तो मर ही जायेंगे !

हर चेहरे पे लिखी है एक ही कहानी 
कितनी आँखों में खुद को पढ़ते जायेंगे 

कबूलते हैं आज अपने हिस्से का सच 
अपने आप से कब तक मुकरते जायेंगे 

जिंदगी तुझको ये पहले से बताना था 
मौत से पहले भी ऐसे सबात*आयेंगे !


वंदना 

Tasleem - greeting , Sabaat - thahraav


6 comments:

  1. वाह...
    बहुत सुन्दर ग़ज़ल....
    कितनी आँखों में खुद को पढ़ते जायेंगे....
    बढ़िया...

    अनु

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  2. बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल आदरेया सभी के सभी अशआर लाजवाब हैं हार्दिक बधाई स्वीकारें होलिकोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार के चर्चा मंच-1198 पर भी होगी!
    सूचनार्थ...सादर!
    --
    होली तो अब हो ली...! लेकिन शुभकामनाएँ तो बनती ही हैं।
    इसलिए होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...