Saturday, June 9, 2012

गज़ल




यादों के आईने में जब माजी से आँख मिलाते है
कोई रंगत हँसा देती है  अपने भरम रुलाते हैं 

तेरी ख़ामोशी बनी बहाना अपनी  हर इक चुप्पी का 
बेसबब कुछ बात करों कि  ताल्लुक घटते जाते हैं 

पलके उठाकर दे दो रिहाई रोशन खाब बिचारों को 
अंधियारों से लड़ते जुगनूं कब से आस लगाते हैं  

कोई कहदे चाँद से जाकर समेट सके तो समेट ले 
चांदनी कि इस रिदा  पे चलके तसव्वुर आते जाते हैं 

तन्हाई में खुद  के होने का जिन्दा ये एहसास तो है
खुद से बाहर  निकलो तो ये  सायें भी खो जाते हैं 

 यूँ हि पुकारा आपने  तो ....हैरत   लाज़मी अपनी 
अजनबी सी सदाओं से तो फरिस्ते भी डर जाते हैं 

कोई खुशबू   भटक रही है  इन आँखों के वीराने में 
खो गये हैं मौसम ए गुल कि कहीं नजर नही आते हैं 

चलो छोडो अब रहने भी दो  कोई और बात करो 
बीत  जाएँ जो पल वंदना कहाँ लौट कर आते हैं 

- वंदना 

5 comments:

  1. बहूत सुंदर बेहतरीन गजल....

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  2. वाह..............

    बहुत प्यारी गज़ल.

    अनु

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  3. बहुत खुबसूरत गजल....

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  4. bauhat khoob...can feel the pain!!

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...