गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...

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इन सिसकियों को कभी आवाज मत देना दिल के दर्द को तुम परवाज मत देना यहाँ अंदाज ए नजर न तुझे तेरी ही नजर में गाड़ दे भूलकर भी किसी को ...
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बंद दरिचो से गुजरकर वो हवा नहीं आती उन गलियों से अब कोई सदा नहीं आती .. बादलो से अपनी बहुत बनती है, शायद इसी जलन...
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वफायें ..जफ़ाएं तय होती है इश्क में सजाएं तय होती हैं पाना खोना हैं जीवन के पहलू खुदा की रजाएं.. तय होती हैं ये माना... के गुन...
बहुत अच्छी पंक्तिया....
ReplyDeleteआपने बहुत दिन बाद मेरे ब्लॉग पर दर्शन दिये.
ReplyDeleteआभारी हूँ.
आपकी त्रिवेणी रचना सुन्दर लगी.
चुप्पियाँ हमेशा से ही बोल से अधिक प्रभावशाली होती है, एक खूबसूरत अहसास
ReplyDeleteगज़ब ... सच है चुप्पिया सिखायती हैं ... लाजवाब ...
ReplyDeleteसुन्दर....
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