कुछ गिरहें जिनमे
बंधी हुई हूँ मैं
जो जकड़े हुए हैं
मेरे वजूद को
जिन्हें ...जब कभी
धीरे धीरे सुलझाने
कि कोशिस करती हूँ
बिखरने लगती हूँ
मेरे साथ बिखरता है
....मेरा विश्वास
मेरे साथ बिखरती है
.....मेरी आस्था,
बिखरने लगता है
मेरा नजरिया,
बिखरने लगती है
......मेरी सोच ,
बिखरने लगता है
-- मेरा वजूद !
चाहती हूँ ...जिन्दगी भर
ये गिरह मुझे ...
यूँ ही बांधकर रखे
मैं कभी बिखरने न पाऊं
क्योकि गिरहों के
इस बंधन में ही मैंने
एक आज़ाद रूह ..
महसूस कि है !!
- वंदना
ऐसी गिरह से कौन निकलना चाहेगा.... बहुत ही खुबसूरत....
ReplyDeleteभावमयी रचना
ReplyDeleteबहुत भावभरी रचना।
ReplyDeleteखूबसूरत भावमयी सुन्दर रचना...
ReplyDeleteक्यूँ कि गिरहों के बंधन मैं ही मैंने एक आजाद रूह महसूस की '
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पंक्तिया |सुन्दर भाव पूर्ण रचना |
आशा
बहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्दों का संगम ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति !!!
ReplyDelete"ये गिरह मुझे यूँ ही बंधकर रखे
मै कभी बिखरने न पाऊ "
चाहती हूँ... जिन्दगी भर
ReplyDeleteये गिरह मुझे यूँ ही बाँध के रखे....
सुन्दर भाव भरी रचना...
सादर...