Monday, September 19, 2011

ग़ज़ल





कभी पत्थर बनाती है   कभी लोहा बनाती है 
गर्द ए एहसास कभी उसको खोया* बनाती है 

कुछ खोया है   या पाया है    उसे मालूम नहीं   
अपने वजूद को आसूद* मगर गोया* बनाती है 

सबब मालूम है तस्वीरों कि रफाकत* का मगर 
वो पागल फिर दुआओं में एक चहरा बनाती है 

बेगानी खुशी मुस्कान में,दुआ में दर्द पराये हैं 
वो जिंदगी से आजकल कैसा रिश्ता बनाती है 

देखा है  जिंदगी के  मौसमों  का  बदल  जाना 
वो हर सफ़हे* को यादों का इक आईना बनाती है 

हँसे  तो आँसू हो जाये,   रोये  तो मुस्कान बने 
वो हर जज्बात को जादू का खिलौना बनाती है 

हम इस नादानी को  तजुर्बा ए इश्क  कहते हैं 
वो हर जख्म को  इबादत  का फलसफा बनाती हैं 

- वंदना 




खोया = राख या बरूदा
आसूद = संपन्न 
गोया = जैसे / माना 
रफाकत = साथ 
सफहे = पन्ने 




10 comments:

  1. बेहतरीन...क्या खूब रचना है आपकी...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  2. बहुत ही उम्दा ... बेजोड शरों से सजी हुयी है आपकी गज़ल ... लाजवाब ...

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  3. ehsas hi hamein bahut kuchh banate hain aur sajate bhi hain. Nice Gajal

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  4. बहुत खूबसूरत गज़ल्।

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  5. बहुत सुन्दर...

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  6. बहुत उम्दा ग़ज़ल कही आपने...
    सादर बधाई...

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  7. काबिलेतारीफ रचना...

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  8. वाह! वाह! बेहतरीन ग़ज़ल.........
    ये शेर बहुत बढ़िया लगा

    वो पागल फिर दुआओं में.......

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...