Friday, March 25, 2011

भीगी हुई सुबह





भीगी हुई सुबह 
ठिठुरते हुए पंछी 
टहनियो से मुंह  निकाल 
झाँकती बसंती कूप 

मदमस्त हवा के 
सुरूर से चलो
टकरा लिया जाय

झूले कि उड़ानों पर 
एक अजनबी आकाश में 
अपनी सुधियों का 
पता लिया जाय

ज़हन के सफहों पर 
साँसों कि लकीरों से ,
कोई ख़त बे नाम 
लिखा  जाय

-वंदना 




13 comments:

  1. .................
    कोई ख़त बेनाम लिखा जाय /
    ..............
    पोखर के पानी में
    कागज़ की नाव बना
    हिचकोले खाने यूं छोड़ दिया जाय /
    मन तो आवारा सा
    भटकने को पागल है
    क्यों न उसे बंधन से मुक्त किया जाय /
    वन्दना जी ! बात जब कविता की आये तो
    मात्राओं का थोड़ा सा
    ख्याल तो रखा जाय /

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  2. saanson ki lakeeron se ek khat benaam... aur kya chahiye

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  3. वाह!
    ज़हन की सफहों पर
    साँसों की लकीरों से,
    कोई ख़त बेनाम
    लिख जाए.

    आपने तो दिल की कलम से लिख दिया ख़त.
    बहुत खूब अहसास.
    कोई क्यों न इस बेनाम ख़त को पढ़े.
    सलाम.

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  4. शुक्रिया आप सभी का ,..कमियों को नजरअंदाज़ न करें...कृपया बताएं ताकि आगे कुछ शुद्ध लिखा भी जा सके और पढ़ा भी जा सके ...बहुत बहुत शुक्रिया :):)

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  5. जहन की सफहों पर ..... वाह सारगर्भित रचना , आभार

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  6. unmukt ,gambhir ,samvedanshil rachana . bahut sundar .
    aabhar .

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  7. बहुत सुन्दर ....इतने खूबसूरत भाव है .....हाँ कोई ख़त यकीनन बेनाम लिखा जाए...

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  8. खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  9. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

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  10. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 29 -03 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  11. सुन्दर/सारगर्भित भावाभिव्यक्ति.

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  12. सांसो की लकीरों से, कोई ख़त बेनाम लिखा जाय़...ताज़गी भरी पंक्ति।

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...