Monday, January 24, 2011

सवेरा



सवेरा फूटकर बिखरे और संवर जाने लगे 
खिडकी पर धूप  कि जब शुआ* आने लगे 

नींद कि आगोश में कुल्मुलाती अंगडाई 
सुनहरे से ख़्वाब से जब जगाने लगे 

नयी उम्मीद ..नयी उमंग.. नए सपने
बनके सूरज पलकों पर ठहर जाने लगे

हल होने लगे घडी कि टिक टिक का हिसाब
वक्त कि कसौटी जब समझ आने लगे

कमरे कि हर एक बनावटी सी चीज़
सजीवता का जब एहसास दिलाने लगे

देखकर सूरत एक जानी पहचानी सी
आईना जब अपने आप में मुस्कुराने लगे

गिर गिर कर सँभलने का हुनर आने लगे
चलो , कि जब जिंदगी कदम बढ़ाने लगे    

शुआ = किरन 
-वन्दना 
1/1/11






6 comments:

  1. gir gir kar samhalne ka hunar aane lage, chalo, ki zindagi jab kadam badaane lage.... vaah! bahut hi achhi gazal hai....hamesha ki tarah hi.

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  2. बहुत खूबसूरत ....ज़िंदगी यूँ ही कदम बढ़ाती रहे ...

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  3. बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।

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  4. ग़ज़ल अच्छी है.सभी शेर अच्छे हैं खासकर......

    हल होने लगे घड़ी की टिक टिक का हिसाब
    वक्त की कसौटी जब समझ आने लगे

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  5. बहुत सुंदर, अंतिम पंक्तियाँ सबसे सुंदर हैं !

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  6. kamre ki har ek banavati se cheez.....and gir gir kar jab sambhalne ka hunar aane lage........waah...kya socha hai....lovable as always :D

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...