दिल कि चार दिवारी में
कुछ एहसास पाले थे
यूँ ही ...आवारा से ,
सोचा भी कहाँ था
सोचा भी कहाँ था
जानवर ही हो जायेंगे ..
मुझे जिन्दा चबाने को आतुर !
एहसासों के गले में बंधी
एक नाजुक सी जंजीर,
बेलगाम देख जिसे
मैं ,जब जोर से खींच देती हूँ
मैं ,जब जोर से खींच देती हूँ
तो रूह छिल जाती है मेरी ,
उन एहसासों का भी
दम तो घुट ही जाता होगा ..
सोचती हूँ किसी दिन
एक झटके में काम ही खत्म कर दूं
पर ख्याल आता है फिर
अपनी बेबसी का ..
नाजुक ड़ोर है
गर झटके में टूट ही गयी
तो मुझे कौन बचाएगा ?
एहसासों को जानवरों के रूप में देखना ...भीषण कटु अनुभव ..
ReplyDeleteओह! कैसे कैसे अहसासों का बोझ ढोना पडता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteएक आत्मचेतना कलाकार
एक अलग प्रकार के अहसासों की अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteमन के अंतर्द्वंद को खूबसूरती से पेश किया है आपने वंदना जी| बधाई|
ReplyDeleteकैसे कैसे एहसास और नाजुक सी डोर!
ReplyDeleteआह!
अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं ।"खबरों की दुनियाँ"
ReplyDeleteबहुत गहरे अहसासों से परिपूर्ण एक भावुक प्रस्तुति..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुंदर एहसास के साथ सुंदर कविता..........अच्छी प्रस्तुति.
ReplyDeleteफर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी
haa ....kaun bachayega :-)
ReplyDeleteवंदना जी,
ReplyDeleteएक ही लफ्ज़ कहूँगा आपकी इस पोस्ट पर .......सुभानाल्लाह.......बिलकुल नया अहसास है.......शुभकामनायें|