Friday, December 24, 2010

एहसास



दिल कि चार दिवारी में 
कुछ एहसास पाले थे 
यूँ ही ...आवारा से , 
सोचा भी कहाँ था
 जानवर ही हो जायेंगे ..
मुझे जिन्दा चबाने को आतुर !

एहसासों के गले में बंधी  
एक नाजुक सी जंजीर,
 बेलगाम देख  जिसे 
मैं ,जब जोर से खींच देती हूँ 
तो रूह छिल जाती है मेरी  ,
उन एहसासों का भी 
दम तो घुट ही जाता होगा ..

सोचती हूँ किसी दिन 
एक झटके में काम ही खत्म कर दूं 
पर ख्याल आता है फिर 
अपनी बेबसी का ..

नाजुक ड़ोर है 
गर झटके में टूट ही  गयी 
तो मुझे कौन बचाएगा ?

वन्दना

11 comments:

  1. एहसासों को जानवरों के रूप में देखना ...भीषण कटु अनुभव ..

    ReplyDelete
  2. ओह! कैसे कैसे अहसासों का बोझ ढोना पडता है।

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    एक आत्‍मचेतना कलाकार

    ReplyDelete
  4. एक अलग प्रकार के अहसासों की अच्छी प्रस्तुति

    ReplyDelete
  5. मन के अंतर्द्वंद को खूबसूरती से पेश किया है आपने वंदना जी| बधाई|

    ReplyDelete
  6. कैसे कैसे एहसास और नाजुक सी डोर!
    आह!

    ReplyDelete
  7. बहुत गहरे अहसासों से परिपूर्ण एक भावुक प्रस्तुति..बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  8. सुंदर एहसास के साथ सुंदर कविता..........अच्छी प्रस्तुति.
    फर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी

    ReplyDelete
  9. वंदना जी,

    एक ही लफ्ज़ कहूँगा आपकी इस पोस्ट पर .......सुभानाल्लाह.......बिलकुल नया अहसास है.......शुभकामनायें|

    ReplyDelete

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...