Sunday, October 3, 2010

तड़प




अक्सर चांदनी रातो में
जब तारे जगमगाते थे
नींदों को मेरी न जाने
कौन से पर लग जाते थे

फकत मुझ से ही मिलने
जैसे चाँद जमीं पर आता था
दिल की परवाज के आगे
गगन ही छोटा पड़ जाता था

भला किया जो तुमने इसके
सारे ही पर काट दिए ..
मैं भी तो देखूं दिल का पंछी
आखिर कब तक तडफडायेगा !!

-वंदना

8 comments:

  1. hehe, गज़ब !

    लिखते रहिये ...

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  2. भला किया जो तुमने इसके
    सारे ही पर काट दिए ..
    मैं भी तो देखूं दिल का पंछी
    आखिर कब तक तडफडायेगा !!
    वाह क्या बात है बहुत अच्छी लगी रचना। कृ्प्या मेरा ये ब्लाग भी देखें। धन्यवाद।
    http://veeranchalgatha.blogspot.com/

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  3. हम्म ..दिल का पंछी बिना परों के उड़ता है ...सुन्दर अभिव्यक्ति

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  4. भला किया जो तुमने इसके
    सारे ही पर काट दिए ..
    मैं भी तो देखूं दिल का पंछी
    आखिर कब तक तडफडायेगा !!

    बहुत सुन्दर भाव भरे हैं ।

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  5. ऐसे आपने अपने दिल का हाल सुनाया, के मेरे दिल को भी बात चुभी!

    प्रशंसनीय कविता हैं, जज़्बात कि भरमार है...

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  6. बहुत ही खुबसूरत रचना...अपनी कलम का जादू यूँ ही बनाये रखें..
    मेरे ब्लॉग पर मेरी नयी कविता संघर्ष

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  7. बहुत सुन्दर कविता....गहरे भाव लिए ...बधाई.

    __________________________
    "शब्द-शिखर' पर जयंती पर दुर्गा भाभी का पुनीत स्मरण...

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...