Friday, June 18, 2010

एक आजाद नज्म





मैं खुद को सौप कर
अल्फाजो को एक रोज,
खुद कि कैद से
अपनी रिहाई लिखूंगी ..
.
कर उम्मीद तू ए दिल
मिलेगी जुबाँ एक रोज तुझे
मैं उसूलों को
जिन्दगी कि दुहाई लिखूंगी..

समेटकर ,कलेजे में
कैद पंछी के बिखरे हुए
सारे पंख, मैं एक रोज
उसे परवाज दूँगी ..

मैं तोडूंगी
एहसासों कि बेडिया .
.हर जज्बात का एक
आसमान लिखूंगी ..

धागा धागा पीर का सुलझाकर
मैं जिन्दगी कि प्रीत बूनूंगी
मोहब्बत कि हर रश्म के सजदे में
दुनिया के लबो पे गुनगुनाता
एक गीत लिखूंगी..


साहिल के रेत कि प्यास लिखूंगी
सागर कि तड़पती मौज लिखूंगी
मैं एक आजाद नज्म एक रोज लिखूंगी
खुद को अम्रता तुझको इमरोज लिखूंगी .

vandana singh
18/6/2010

6 comments:

  1. मैं खुद को सौप कर
    अल्फाजो को एक रोज,
    खुद कि कैद से
    अपनी रिहाई लिखूंगी ..
    ....nice one

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  2. Wow.....Blog bahut sundar lag raha hain...aur kya chitrakaari kar di hai yaar nazm mein....your writing is growing day by day.

    साहिल के रेत कि प्यास लिखूंगी
    सागर कि तड़पती मौज लिखूंगी
    मैं एक आजाद नज्म एक रोज लिखूंगी
    खुद को अम्रता तुझको इमरोज लिखूंगी .

    To Amrita ji hamne aapki nazm chori kar li :-)

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  3. वो परिंदा मेरी मुंडेर से बड़ी हैरत में उड़ा, कहीं दूर चलूँ यहाँ पिंजर ए दस्तूर बहुत हैं...; ऐ मोला ,मैं बसर करता रहूँ पंछी बनके हर जनम, इंसानों कि बस्ती में तो हर कोई मजबूर बहुत हैं ...

    Iska font color change karo.....blog color se mil gaya hai

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  4. nazm dil ki geheraiyon tak utar gaya
    aap mai shabdo ko sawarne ka be intehaan hunar hai

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...