Wednesday, February 17, 2010

"कुछ आशार "..जो गजल नहीं हो पाए

वो पत्थर फैंकते रहे एक प्यासे समंदर में
ये जरा नहीं सोचा लहरों को भी चोट आती है ...

उनकी तड़प का अंदाजा किनारे ही जानते है .
जब बेताब सी उठती है चोट खाकर बेबस लोट जाती है ..

शायद इसी बात का सागर को गुरूर है गहराई पे अपनी
अपना वजूद भूलकर गंगा भी उसकी .आगोश में सिमट कर ठहर जाती है

जिससे बादल ने उधार ली है नमी अपनी अधरों कि
उसी सागर कि ..ये नदिया प्यास बुझाती है.. .

ऐ समंदर तेरी हस्ती मुझे मेरी गागर से कहीं छोटी लगी
जिसकी खार किसी प्यासे के काम ना आती है .
..
आईने ने समझाया था कल मुझे .आँखों के समंदर को नदी हो जाने दो ..
आंसूओ कि खार से किसी कि प्यास नहीं बुझती ..
बल्कि डूबकर एक प्यासे कि जान जाती है

3 comments:

  1. आईने ने समझाया था कल मुझे .आँखों के समंदर को नदी हो जाने दो
    आंसूओ कि खार से किसी कि प्यास नहीं बुझती ..
    बल्कि डूबकर एक प्यासे कि जान जाती है

    अलग सा अंदाज़ है लिखने का .... बहुत अच्छा लिखा है ...

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  2. आईने ने समझाया था कल मुझे .आँखों के समंदर को नदी हो जाने दो ..
    आंसूओ कि खार से किसी कि प्यास नहीं बुझती ..
    बल्कि डूबकर एक प्यासे कि जान जाती है
    bahut gahri baat kah di hai vandana ji, bahut umda abhivyakti.

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  3. Last two's are superb .....kya Vichaar hai....baut badiya vandana

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...