वक्त के दामन में उलझी हिकायत* रहे कब तक
दिल ए पागल हमें तुझसे हिमायत रहे कब तक
दे दे रिहाई रूह ए ग़ज़ल कि बंदिशों को आज
हर एक तहरीर को हमसे शिकायत रहे कब तक
करते हैं इल्तजा अब अपने टूटे हुए ये भरम
तेरे सायें से उलझी हर एक आयत रहे कब तक
समेटले बिखरे पंखों को नई परवाज़ से पहले
तुझको ए दिल जाने ये रियायत* रहे कब तक
है आरजू कि देखता चलूँ डूबते सूरज कि तरह
मेरे पहलू में ये शफक सी इनायत रहे कब तक
{हिकायत = कहानी ,रियायत = छूट }
वंदना
बहुत बढ़िया....
ReplyDeleteसुन्दर गज़ल...
अनु
bahut khoob...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया..स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई..
ReplyDeleteखूबसूरत गहरा एहसास समेटे ... लाजवाब गज़ल ....
ReplyDeleteएक अलग अंदाज
ReplyDeleteएक अच्छी गजल!
है आरजू कि देखता चलूँ डूबते सूरज कि तरह
ReplyDeleteमेरे पहलू में ये शफक सी इनायत रहे कब तक
behatreen...!!
बहुत बढ़िया ग़ज़ल सभी शेर बहुत अच्छे हैं दूसरे शेर के लिए विशेष दाद कबूल करें
ReplyDeletecomment kru na kru padhta zaroor hu. :)
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