इन तारों के बीच कहीं
कुछ भटकता हुआ सा
कल तक अक्सर मेरी
नींदों से टकरा जाता था..
जिसकी किरचे रोज़ टूटकर
चुभ जाती थी आँखों में मेरी
आदत हो चली थी ..
मेरी पलकों को उस नमी कि !
मैं बेसबब होकर अपनी
चाह के इस रेगिस्तान में
जितने कदम भी चली हूँ
उतनी ही हिसाब कि
कच्ची होती गयी हूँ
मेरी उँगलियों पर
लम्हे ठहरा करते थे ..
वो लम्हे पहर में बदले
पहर दिनों में ,दिन
हफ़्तों में बदल गये
हफ़्तों में बदल गये
और हफ्ते महीनों में ...
इससे पहले साल
और एक उम्र में बदलें
मैंने मुट्ठी बंद कर ली..
ताकि जब भी मुट्ठी खोलूं
सब कुछ उँगलियों
यूँ ही ठहरा हुआ मिले ...
मगर एहसासों को तापमान
अब बहुत गिर गया है ..
इश्क में शायद शीत का
ये मौसम भी आता है
जब हर खलिश हवाओं में
दम तोड़ने लगती है !
जम गयीं है तम्म्नाएं
ख्यालों के पंख अकड़ कर
बोझिल हो गयें है ..
लम्हे , आरजू , ख्वाइश
कुछ नहीं है मेरे पास
ना उम्मीद , ना इन्तजार
ना आस ..कुछ भी नही !
फकत बंद मुठी में
उँगलियों पर ठहरा हुआ
एक वक्त है जो इस शून्य लोक
में मेरी जीवितता का प्रमाण है
वंदना
bahut hi badhiyaa
ReplyDeleteअद्भुत... बहुत ही बढ़िया....
ReplyDeleteसादर...
i wonder how beautifully you describe those complex emotions....the last 2 para are simply amazing...hail to your writing skill!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ………।
ReplyDeleteखूबसूरत नज़्म उँगलियों पर लम्हों का ठहरना ..बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत और उम्दा नज़्म....
ReplyDeleteबंद मुट्ठी में उँगलियों पर ठहरा हुआ वक्त...
ReplyDeleteसुंदर विम्ब!
वंदना जी बहुत अच्छी नज़्म है...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
बहुत सुन्दर नज्म लिखी है.. वंदना जी बधाई..
ReplyDeletebahut khoob, la jabab meri shubh kamana aap ke sath hai humesha
ReplyDeleteबेहतरीन नज़्म ...सुंदर शाब्दिक अलंकरण
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