Saturday, November 12, 2011

नज़्म..




इन तारों के बीच कहीं 
कुछ भटकता हुआ सा  
कल तक अक्सर  मेरी 
नींदों से  टकरा जाता था..
जिसकी किरचे रोज़ टूटकर
 चुभ जाती थी आँखों में मेरी 
आदत हो चली थी ..
मेरी पलकों को उस नमी कि  !

मैं बेसबब होकर अपनी 
चाह के इस रेगिस्तान में 
जितने कदम भी चली हूँ 
उतनी ही हिसाब कि 
कच्ची होती गयी हूँ 
मेरी उँगलियों पर 
लम्हे ठहरा करते थे ..
वो लम्हे पहर में बदले 
पहर दिनों में  ,दिन
 हफ़्तों में बदल गये 
और हफ्ते महीनों में ...
इससे पहले साल 
और एक उम्र में बदलें 
मैंने मुट्ठी बंद कर ली..
ताकि जब भी मुट्ठी खोलूं 
सब कुछ उँगलियों
यूँ ही ठहरा हुआ मिले ...

मगर एहसासों को तापमान 
अब बहुत गिर गया है ..
इश्क में शायद शीत का 
ये मौसम भी आता है
जब हर खलिश हवाओं में 
दम तोड़ने लगती है !  

जम गयीं है तम्म्नाएं 
ख्यालों के पंख अकड़ कर 
बोझिल हो गयें है ..
लम्हे , आरजू , ख्वाइश 
कुछ नहीं है मेरे पास 
ना उम्मीद , ना इन्तजार 
ना आस  ..कुछ  भी नही !

फकत  बंद मुठी में 
उँगलियों पर ठहरा  हुआ 
एक वक्त है जो इस शून्य लोक 
में मेरी जीवितता का प्रमाण है 

वंदना 




11 comments:

  1. अद्भुत... बहुत ही बढ़िया....
    सादर...

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  2. i wonder how beautifully you describe those complex emotions....the last 2 para are simply amazing...hail to your writing skill!!!

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  3. बहुत सुन्दर ………।

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  4. खूबसूरत नज़्म उँगलियों पर लम्हों का ठहरना ..बहुत खूब

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  5. बहुत ही खुबसूरत और उम्दा नज़्म....

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  6. बंद मुट्ठी में उँगलियों पर ठहरा हुआ वक्त...
    सुंदर विम्ब!

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  7. वंदना जी बहुत अच्छी नज़्म है...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  8. बहुत सुन्दर नज्म लिखी है.. वंदना जी बधाई..

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  9. bahut khoob, la jabab meri shubh kamana aap ke sath hai humesha

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  10. बेहतरीन नज़्म ...सुंदर शाब्दिक अलंकरण

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...