Wednesday, July 27, 2011

नींद .....





             आज आँखों के चोबारे से  ..नींद  दबे पाँव न जाने कहाँ  फरार हो गयी ,...
अभी तो यहीं थी थकी हारी सी ..

       इस अँधेरे कमरे में  जहां  हर एक  चीज़ बिखरी हुई सी मालूम होती है  ..जब  जब खुद को सिमटा सा महसूस करती हूँ ....तो कमरे कि चीजों  को भी संवार देती हूँ | कभी कभी माँ  कि झुंझलाहट देखकर  डर जाती हूँ    तो फैसला ही नहीं कर पाती कि अपने भीतर के बिखराव को समेटना ज्यादा जरूरी है या कमरे को .....खैर फिल हाल तो मैं ..नींद को ढूंढ रही थी ....इस बिखरे फैले कमरे में बिना किसी  आहट के इन अंधेरो में भला किधर गयी !
             मैं इन अंधेरो को नहीं पार कर सकती .....इसलिए बस खिड़की पर बैठकर राह देख रही हूँ ..इन आते झोंको से पूछा तो झुंझलाकर बताया मिली थी रेत में ठोकर मारती हुई ....!  ( इसलिए मेरी आँखों में इतना चुभ रही है ये  हवा जिसकी किरक ...मेरी साँसों में होकर ज़हन को रेतीला कर रही है ..)       शायद  कुछ मीठे से अंदाज में बेसुरा सा गुनगुनाती हुई ..फूलो को नोचती हुई ..कांटो को खिजाती हुई ,  .........बहते पानी में आईना देख मूह बनाकर इतराती हुई !   ...बूढ़े बरगद और उस पीपल पर लिखी सैकड़ो कथाएं पढ़ती हुई ...उन ऊंचे ऊंचे पेड़ों कि चोटियों से ...जंगल को झांकती हुई ....,

         सागर किनारे उदास बैठे भी देखा था .साहिल कि नम रेत पर .कुछ लिखते हुए शायद ..लहरें भी आखिर उसी कि तरह अल्हड है ..वक्त कि नजाकत  कब समझती है , झूम उठी ...मिट गया सब कुछ  ..फिर देखा था उसे मूह लटकाए उन पर्वतों कि   तरफ जाते हुए ...जहां कुछ किंकर पैरो में चुभे कुछ कांटो ने दामन को  चीरा मगर फिर भी झाडों से इलझते उलझते वो पहुँच गयी है उन बादलो के बहुत करीब ...जो न जाने कितने दिन से नहीं बरसे  मगर उन आँखों में एक झुलसती हुई धूंप देखकर बादल को पसीजना था ....मगर वह भी  एक गुब्बार सीने में दबाए रह गया जैसे  !
     हाँ फिर देखा था.... उसे आसमां कि तरफ बढ़ते हुई ...कुछ टूटते तारों को सजदा करते हुए......कुछ सितारों को चुनर में समेटते हुए  !   और उस चाँद के बेहद करीब ..मगर चाँद भी दुनियादारी का ही हिस्सा है ,,.. समेट चला है अपनी दूकान ..फिर एक नयी रात उसको खरीदेगी ., कुछ पुराने रिवाज़ और घटते बढ़ते दाम के साथ .! लौट गयी है वो वापस ....बस आती ही होगी ...तुम खिड़की खुली रखना ..और हाँ बत्ती मत जलाना  ....अब इन पलों को अँधेरे कि गोद सिमट जाने दो ...ये नींद  जिंदगी के घने उजालो से टकराकर लौटी है ना ..अब जरूरी है अँधेरे से विशवास ना टूटे !! 

वंदना 

14 comments:

  1. गहन प्रवाहमयी अभिव्यक्ति....

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  2. सुन्दर प्रस्तुति।

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  3. बहुत ही कोमलता से नीद पर सुन्दर भाव मयी प्रस्तुति ...

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  4. बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने ..आभार ।

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  5. bahut hi badhiyaa... waise andhere me raushni ki ummeeden gahri hoti hain

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  6. गहरे एहसास मिएँ डुबोने के लिए काफी हैं ये शब्द ...
    बहुत खूब ..

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  7. शब्दों को मोती बना कुछ ऐसे पिरोया
    जैसे हर मोती धागा में समाया।

    तन्हाई ने यूं आकर दी दस्तक
    मुझको भी इसने नींद से जगाया।

    तन्हाई भी गढ़ लेती है अपना ठिकाना
    वशर्ते कोई कारीगर तो हो सरीखे बंदना।

    आपके पोस्ट के पढ़ने के बाद बरवस ही कुछ शब्द निकल गए...

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  8. वन्दना जी ! आपका गद्य भी पद्य की सुखानुभूति देता है. कभी लगता है कि जैसे किसी यायावर की अल्हड डायरी पढ़ रहा हूँ.......कभी लगता है किसी वीराने में बैठ खुद से बातें कर रहा हूँ.......कभी लगता है कि जैसे कोई चिड़िया अपनी कहानी सुनाकर उड़ गयी हो फुर्र से........कभी ज़िंदगी के फटे हुए चीवर से झांकती पीड़ा के स्पर्श से चौंक उठता हूँ .......कभी .....उफ़ ! कितना बताऊँ ....क्या-क्या बताऊँ ........ बस आप केनवास पर कूंची फिराती रहिये, रंग खुद-ब-खुद संवरते जायेंगे .

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  9. सुंदर प्रस्तुती....

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  10. very possessive and pleasurable thoughts & writing
    for every one ji . shukriya ji .

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  11. ek achhe khaase interval ke baad padh raha hoon aapko....lekhan me adbhut maturity dikh rahee hai...bahut hi zyada shaandaar hai...bahut zyaada :)

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...