आज आँखों के चोबारे से ..नींद दबे पाँव न जाने कहाँ फरार हो गयी ,...
अभी तो यहीं थी थकी हारी सी ..
मैं इन अंधेरो को नहीं पार कर सकती .....इसलिए बस खिड़की पर बैठकर राह देख रही हूँ ..इन आते झोंको से पूछा तो झुंझलाकर बताया मिली थी रेत में ठोकर मारती हुई ....! ( इसलिए मेरी आँखों में इतना चुभ रही है ये हवा जिसकी किरक ...मेरी साँसों में होकर ज़हन को रेतीला कर रही है ..) शायद कुछ मीठे से अंदाज में बेसुरा सा गुनगुनाती हुई ..फूलो को नोचती हुई ..कांटो को खिजाती हुई , .........बहते पानी में आईना देख मूह बनाकर इतराती हुई ! ...बूढ़े बरगद और उस पीपल पर लिखी सैकड़ो कथाएं पढ़ती हुई ...उन ऊंचे ऊंचे पेड़ों कि चोटियों से ...जंगल को झांकती हुई ....,
सागर किनारे उदास बैठे भी देखा था .साहिल कि नम रेत पर .कुछ लिखते हुए शायद ..लहरें भी आखिर उसी कि तरह अल्हड है ..वक्त कि नजाकत कब समझती है , झूम उठी ...मिट गया सब कुछ ..फिर देखा था उसे मूह लटकाए उन पर्वतों कि तरफ जाते हुए ...जहां कुछ किंकर पैरो में चुभे कुछ कांटो ने दामन को चीरा मगर फिर भी झाडों से इलझते उलझते वो पहुँच गयी है उन बादलो के बहुत करीब ...जो न जाने कितने दिन से नहीं बरसे मगर उन आँखों में एक झुलसती हुई धूंप देखकर बादल को पसीजना था ....मगर वह भी एक गुब्बार सीने में दबाए रह गया जैसे !
हाँ फिर देखा था.... उसे आसमां कि तरफ बढ़ते हुई ...कुछ टूटते तारों को सजदा करते हुए......कुछ सितारों को चुनर में समेटते हुए ! और उस चाँद के बेहद करीब ..मगर चाँद भी दुनियादारी का ही हिस्सा है ,,.. समेट चला है अपनी दूकान ..फिर एक नयी रात उसको खरीदेगी ., कुछ पुराने रिवाज़ और घटते बढ़ते दाम के साथ .! लौट गयी है वो वापस ....बस आती ही होगी ...तुम खिड़की खुली रखना ..और हाँ बत्ती मत जलाना ....अब इन पलों को अँधेरे कि गोद सिमट जाने दो ...ये नींद जिंदगी के घने उजालो से टकराकर लौटी है ना ..अब जरूरी है अँधेरे से विशवास ना टूटे !!
वंदना
गहन प्रवाहमयी अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही कोमलता से नीद पर सुन्दर भाव मयी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है आपने ..आभार ।
ReplyDeletebahut hi badhiyaa... waise andhere me raushni ki ummeeden gahri hoti hain
ReplyDeleteगहरे एहसास मिएँ डुबोने के लिए काफी हैं ये शब्द ...
ReplyDeleteबहुत खूब ..
sunder shabd vyanjana.
ReplyDeleteशब्दों को मोती बना कुछ ऐसे पिरोया
ReplyDeleteजैसे हर मोती धागा में समाया।
तन्हाई ने यूं आकर दी दस्तक
मुझको भी इसने नींद से जगाया।
तन्हाई भी गढ़ लेती है अपना ठिकाना
वशर्ते कोई कारीगर तो हो सरीखे बंदना।
आपके पोस्ट के पढ़ने के बाद बरवस ही कुछ शब्द निकल गए...
अच्छी पोस्ट लिखी है आपने!
ReplyDeleteवन्दना जी ! आपका गद्य भी पद्य की सुखानुभूति देता है. कभी लगता है कि जैसे किसी यायावर की अल्हड डायरी पढ़ रहा हूँ.......कभी लगता है किसी वीराने में बैठ खुद से बातें कर रहा हूँ.......कभी लगता है कि जैसे कोई चिड़िया अपनी कहानी सुनाकर उड़ गयी हो फुर्र से........कभी ज़िंदगी के फटे हुए चीवर से झांकती पीड़ा के स्पर्श से चौंक उठता हूँ .......कभी .....उफ़ ! कितना बताऊँ ....क्या-क्या बताऊँ ........ बस आप केनवास पर कूंची फिराती रहिये, रंग खुद-ब-खुद संवरते जायेंगे .
ReplyDeleteBAHUT SUNDAR
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुती....
ReplyDeletevery possessive and pleasurable thoughts & writing
ReplyDeletefor every one ji . shukriya ji .
ek achhe khaase interval ke baad padh raha hoon aapko....lekhan me adbhut maturity dikh rahee hai...bahut hi zyada shaandaar hai...bahut zyaada :)
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